Saturday, December 4, 2010

आईआईएमसी आने का जुगाड़

  मैं एटीएम में था। देखा अकाउंट में पैसे नहीं आए थे। महिने का आखिरी समय था पैसों की कड़की थी। घरवालों को पैसे भेजने को कहा था पर अकाउंट में पैसे नहीं थे। एटीएम से बाहर आने पर एक व्यक्ति मेरे पास आया और कहने लगा- 'सर आपको पैनड्राइव लेना है क्या? मेरे पास 32 जीबी की नई पैनड्राइव है। आपको बाजार से बहुत कम दाम में दे दूंगा।' मेरा तो वैसे ही दिमाग का दही था। 2 दिन बाद 23 जून आईआईएमसी में एडमिशन के लिए इंटरव्यू में जाना था और पास में पैसे नहीं थे। जले पे नमक छींडकने ये पैनड्राइव बेचने आ गया है।
  इस पैनड्राइव बेचने वाले ने पुराने जख्म को भी हरा कर दिया। ये पैनड्राइव नकली तो होते ही है, काम भी नहीं करते है। खरीदने के बाद ये कचरा बन जाते है। करीब एक साल पहले एैसे ही एक ने मुझे नकली पैनड्राइव बेच कर ठग लिया था। हजार रूपए का वो पुराना जख्म हरा हो गया। और ज्यादा दिमाग खराब हो गया। मैंने इस पैनड्राइव वाले से अपना पुराना हिसाब बराबर करने का सोचा। कुछ ही देर पहले उसने एक लड़के को ठगा था। मेरे अंदर की पत्रकारिता हरकत में आई। मैंने अपने एक साथी को वहां उसके साथ छोड़ दिया और उससे कहा कि मै घर से पैसे लेकर आ रहा हूं।
अपन को थाने जाने में हिचक वगैरह तो होती नहीं है। स्कूल के समय में पत्रकारिता करते हुए पुलिस थाने ही अपने प्राइमरी न्यूज सोर्स होते थै। मैं सीधे पुलिस थाने पहुंचा। वहां के थाना प्रभारी से कहा- मैं पत्रिका न्यूज़ पेपर से हूं। वहां चौराहे पर एटीएम के पास एक व्यक्ति नकली पैनड्राइव बेच रहा है। चल कर कार्यवाही कीजिए। बिना वर्दी के दो पुलिस वालों को साथ में लेकर वहां पहुंच गया। पुलिस ने इसे रंगे हाथों पकडा। पुलिस के पूछने पर उसने कहा- 'साहब एक ही पीस था।' उसकी तलाशी लेने पर उसके पास कई पेनड्राइव बरामद हु्ई। पुलिस उसे थाने ले गई। मैंने थाना प्रभारी को कहा- सर इसे छोड़ना मत, इसकी खबर बनेगी। मैं फील्ड में अपनी रिपोर्टिंग करने चला गया।
  शाम को जब रूम पहुंचा तो याद आया थाना जाना था। थाना पहुंचा तो पुलिस उससे पूछताछ करने लगी। आरोपी ने बताया वो हरियाणा के किसी गांव से है। दिल्ली से नकली पैनड्राइव 125 रुपए में खरीद कर। सड़क पर घूमकर ग्राहकों को मनचाहे दामों पर बेच देता था...। वो मेरे सामने माफी मांगने लगा। मैंने कहा मुझसे तो माफी मांग लेगा। उससे माफी कौन मांगेगा जिसे तूने सुबह ये बेच कर ठगा है।
  मेरे दिमाग में आईआईएमसी जाने के लिए पैसों की चिंता थी ही। मैंने सोचा और कहा मैं तुझे छुड़वा देता हूं। पास में पैसे कितने है? उसने पैसे निकाले और मेरे हाथ में दे दिए। मैंने पैसे अपने जेब में रख लिए। उससे कहा- यहां तेरे कोई जान-पहचान के कोई होंगे ना, उनको फोन करके पैसे लेकर बुला ले। मैं थाना प्रभारी के पास पहुंचा और कहा- 'सर उसको छोड़ दो, रोना-गाना कर रहा है। बाहर का भी है उसे छुडवाने कौन आएगा।' थाना प्रभारी ने सिपाही को आवाज लगाई। वो सुबह के पैनड्राइव वाले को छोड़ दो।
आरोपी बाहर आ गया। उसके पिताजी वहां पहुंच गए, मैंने उनसे दो सौ रूपए लिए। थाना प्रभारी के पास धीरे से गया और उन्हें दो सौ रूपए दे दिए। थाना प्रभारी ने छुपा के ले लिए। मैंने आरोपी को समझाइस देकर जाने को कह दिया।
इस तरह मैंने आईआईएमसी आने के लिए पैसों का जुगा़ड़ किया। अगले दिन ट्रेन की टिकट कटवाई और दिल्ली पहुंच गया। मुझे नहीं लगता है मैंने कुछ गलत किया। मैंने एक ठग से हिसाब बराबर किया। मुझे एक ठग ने ठगा था, मैंने ठग को ही ठगा। इसमें गलत क्या किया। कभी-कभी हमारे कुछ काम बिना जुगाड़ के पूरे नहीं होते ना!

Monday, November 15, 2010

स्कूल के बाद मेरी पत्रकारिता

अमित पाठे पवा
  2004 में 11 से गणित विषय तो ले लिया था पर इसके लिए मैं शायद नहीं था। दसवीं में 69.3 प्रतिशत आ गए थे। गणित में 87 अंक आ गए थे तो गणित विषय ले लिया। अपन किताबी कीड़े तो है नहीं। इस विषय में पढ़ना खूब पड़ता ही है। 2006 में 12वीं 53.3 प्रतिशत से पास कर ली। 12वीं गणित से पास करने के बाद इंजीनियरिंग करने की होड़ होती है। तो मैंने भी एमपी प्री-इंजीनियरिंग टेस्ट दे दिया।

  इंजीनियरिंग की काउंसलिंग में पहुंचा कॉलेज भी आबंटित हो गया। वहीं बैठे सोचा- तू किताबी कीड़ा तो है नहीं, 12वीं में जैसे-तैसे पास हुआ है। आगे भी रोते-रोते इंजीनियर नहीं बनना है। काउंसलिंग में नॉट इंट्रस्टेड करवा कर वापस आ गया। अब सोच लिया बी.ई. नहीं करना है। बड़ा भाई इंदौर में पढ़ रहा था। इसने वहां जेटकिंग में हार्डवेयर नेटवर्किंग में एडमिशन करवा दिया। उसमें मैंने पाया 10वीं पास भी पढ़ रहा था और 11वीं फेल भी। यहां भी नहीं पढ़ना है।
इसके बाद इंदौर में ही एनआईएफडी के मोइरा इंस्टीट्यूट में बी.एससी. मल्टीमीडिया में एडमिशन लिया। क्लासेस शुरू की तो वहां स्कैचिंग करवाई जाती थी। स्कैचिंग में मेरा हाथ काफी तंग है। हाथी बनाता हूं तो चूहा दिखता है। तो हमने मल्टीमीडिया भी छोड़ दिया। अब अक्तूबर भी बीत गया था, तो कहीं एडमिशन नहीं होता। इस दौरान हमारी पत्रकारिता चलती रही। घर में 4-5 अख़बार, रोजगार समाचार, न्यूज टुडे आती थी। घर वाले चिंतित कि यह साल बर्बाद कर रहा है। कहीं एडमिशन भी नहीं ले रहा, बस दिन भर अख़बार में घुसा रहता है। घरवालों को अख़बारों से आपत्ति होने लगी। वे अख़बार बंद करवाते और मैं चालू करवा देता। कुछ 2-3 जिला स्तर के अख़बार जान-पहचान के कारण और आने लगे। हालांकि ये फ्री आते थे।


  12वीं पास छात्र के लिए रोजगार समाचार में क्या हो सकता है। जब ये अख़बार आता 20-25 मिनट में सरसरी नजर से देख लेता था। अपने काम की एक-दो सामग्री पढ़ के खत्म। घरवाले कहते- इस पेपर में तेरे काम का क्या आता है? पढ़ना तो है नहीं तू। इस तरह घरवाले बनाम अख़बार का सिलसिला चलता रहा, और हमारी पत्रकारिता का शौक आगे बढ़ता रहा।


  कुछ महिने बाद रोजगार समाचार में देवी अहिल्या विश्वविधालय, इंदौर का एडमिशन नोटिस आया। इसमें विश्वविधालय के सारे कोर्सों का ब्यौरा था। मैंने पत्रकारिता एवं जनसंचार अध्ययनशाला के बी,ए.(ऑनर्स) जनसंचार का कोर्स देखा। अगले दिन वेबसाइट से एप्लीकेशन फॉर्म डाउनलोड किया डी.डी. बनाई। फॉर्म पूरा कर विश्वविधालय को भेज दिया। 5-7 दिन बाद विश्वविधालय से फोन आया- आपका फॉर्म हमें आज ही प्राप्त हुआ है। गलती से रजिस्ट्रार ऑफिस पहुंच गया था। परसों 10 बजे आपकी लिखित परीक्षा है। हमने प्रवेश-पत्र कुरियर कर दिया है पर वो तो तब तक पहुंचेगा नहीं, इसलिए हमने फोन कर दिया।


  अगले दिन इंदौर जाकर लिखित परीक्षा दी। उसी दिन शाम को मेरा नाम लिखित परीक्षा में चयनित छात्रों की सूची में उपर से चौथा था। अगले दिन सुबह साक्षात्कार भी था मैंने साक्षात्कार दिया। उसी दिन शाम को साक्षात्कार में चयनित छात्रों की सूची भी आ गई। इसमें मेरा भी नाम था।


  घर फोन कर कहा- मेरा सिलेक्शन हो गया है। एडमिशन के लिए अकाउंट में पैसे जमा कर दो। उन्होंने पूछा- बेटा तू कर क्या रहा है?’ मैंने कहा- मास कम्यूनिकेशन, जनसंचार। घरवालों ने पूछा- ये बी.ई. है क्या?’ मैंने कहा- ‘नहीं, मुझे बी.ई. नहीं करना। मेरे अकाउंट में आज ही पैसे जमा कर दो एडमिशन करवा के आउंगा, तब बता दूंगा। पैसे जमा हो गए और मैंने देवी अहिल्या विश्वविधालय के पत्रकारिता एवं जनसंचार अध्ययनशाला के बी,ए.(ऑनर्स) जनसंचार में एडमिशन ले लिया। इस तरह हमारा पत्रकारिता का शौक आगे बढ़ता रहा।

Friday, November 12, 2010

पत्रकारिता का 'प' Journalism's 'J' ..

अमित पाठे पवार


उस दौरान मैं पत्रकारिता को 20-20 क्रिकेट की तरह खेल रहा था

  स्कूल के दिनों में अपनी हाईस्कूल की परीक्षा की तैयारी कर रहा था। उस दौरान मेरे घनिष्ठ मित्र हुआ करते थे, राजू पवार। वे उम्र में मुझसे 7-8 साल बड़े थे। वह पेशे से व्यवसायी थे और उन्होंने ‘दैनिक जागरण’ की एजेन्सी ली। परीक्षा हो जाने के बाद अब मेरे पास खाली समय था। राजू ने मुझसे कहा- ‘यार जागरण के ऑफिस से न्यूज़ के लिए फोन आते है। मुझे तो टाइम मिलता नहीं, तू जैसे हो वैसे न्यूज़ लिखकर ऑफिस भेज दिया कर।‘ इस तरह मैं दैनिक जागरण के जिला कार्यालय को न्यूज भेजने लगा और मेरी पत्रकारिता का श्री गणेश हुआ।

  ग्यारहवीं पहुंचा तो स्कूल ने अपनी फीस करीब तीन गुना बढ़ा दी। हम छात्रों को अब तक नाममात्र की फीस में पढ़ने की आदत थी, इसलिए बढ़ी हुई फीस भारी लग रही थी। उस दौरान मैं पत्रकारिता को 20-20 क्रिकेट की तरह खेल रहा था। फिर क्या स्कूल की फीस की न्यूज़ बनाई और भेज दी ‘दैनिक जागरण’ के जिला ब्यूरो ऑफिस। बाद में फोन कर के भी कह दिया- ‘मैडम मेरा नाम(बाय लाइन) भी दे देना।‘

  अगले दिन खबर हमारे पेज की फर्स्ट लीड थी वो भी बायलाइन (निज संवाददाता, अमित पाठे) के साथ। स्कूल में हमारी झांकी हो गई। सारे स्कूल वाले पहचानने लगे कि भई ये ‘पत्रकार’ है। दोस्त पूछते कि तूने ये कैसे छपवाया... आदि। चुंकि मैं 20-20 की स्टाइल में था, इसलिए कुछेक स्थानीय पत्रकार भी अब जानने लगे थे।

  एक दिन कोल इंडिया की क्षेत्रीय फुटबॉल प्रतियोगिता का फाइनल चल रहा था। मेरे घर के बगल में ही स्टेडियम है, पापा भी कोल इंडिया में है। तो मैं भी पहुंच गया। वहां नागपुर के हिन्दी अखबार ‘लोकमत’ के स्थानीय पत्रकार भी मौजूद थे। उससे मेरी थोड़ी-बहुत पहचान थी। वो मेरे दोस्त राजू की दुकान पर आता रहता था और व्यंगात्मक बातें कर राजू का मज़ाक उड़ाता था।

  मैं स्टेडियम में था और फुटबॉल मैच चल रहा था। मैने देखा लोकमत के यह पत्रकार कैमरा लिये मैच की फोटो ले रहे थे। उसे देख मुझे जलन हो रही थी। जलन से कभी-कभी आपको एक अलग ही उर्जा भी मिल जाती है। मैं कोल इंडिया के खेल प्रभारी के पास जा पहुंचा और उनसे कहा- ‘सर मैं दैनिक जागरण से हूं। मुझे इस मैच के रिजल्ट की न्यूज चाहिए।‘ उन्होंने कहा-‘बेटा पन्द्रह मिनट में मैच का रिजल्ट आ जाएगा। आप बैठो मैं खबर लिखवा देता हूं।‘ रिजल्ट आने के बाद उन्होंने अपने अस्सिटेंट से बढ़िया न्यूज लिखवा दी। हम दोनों के एक-दूसरे को धन्यवाद कहा और मैं वहां से चल दिया। मैनें कागज लिफाफे में डाला और बस से दैनिक जागरण के जिला ब्यूरो ऑफिस को भेज दिया। ऑफिस फोन कर के कह भी दिया कि खबर भिजवाई है।

  अगले दिन मैं सुबह अपने हॉकर से मिलने बसस्टेंड पहुंचा। हॉकर से कहा-‘बंडल इतने लेट क्यों आ रहे है, बांटेगा कब....।‘ मैं अपने हॉकर से बात कर ही रहा था उतने में लोकमत के पत्रकार भी वहां पहुंच गए। उनके पेपर बंडल भी वहीं आते थे। मुझे याद आया कि यार कल की न्यूज का क्या हुआ देखा ही नहीं। मैंने अपना जागरण खोला देखा मेरी कल की कोल इंडिया के फाइनल मैच की खबर हमारे जिला पेज पर थी। पांच कॉलम की एंकर न्यूज मैने अपने हॉकर भी दिखाई।

  मैंने हॉकर से कहा-‘ज़रा देख तो लोकमत में कैसी आई है।‘ देखा तो लोकमत में ये खबर कहीं नहीं थी। मुझे बङी खुशी हुई। धीरे से लोकमत के पत्रकार के पास पहुंचा और इससे कहा-‘भईया आपकी कल की न्यूज नहीं आई क्या?’ उसने कहा- ‘यार खा गए न्यूज को फोटो भी भिजवाई थी। तेरी छपी है क्या?’ मैंने कहा- हां। उन्होंने कहा- ‘तूने फोटो नहीं भिजवाई थी?’ मैने कहा- ‘भईया अपने पास कैमरा कहां है।‘ वो बोले- ‘न्यूज तो बढ़िया लगवाई है तूने।‘ मुझे बढ़ी खुशी हुई, कल ये वहां कैमरा लेकर डींग मार रहा था पर न्यूज तो आई ही नहीं। पत्रकारिता के लिए मेरा उत्साह और बढ़ गया और ये भी कि अब ये दुकान पर आकर हमारा मजाक उडाना बंद कर देगा। इस तरह पत्रकारिता का हमारा शौक आगे बढ़ता रहा।

Saturday, October 30, 2010

मीडिया/Media की 'डेड-लाईन' मैनेजमेंट के फंडे मैनेज करना

अमित पाठे पवार

  2.5 करोड़ के स्तंभकार। वैसे तो कोई स्तंभों को अनमोल भी कहा जाता हैं। स्तंभ छपने के बाद उसका मोल आंकन का प्रयास किया जाता सकता है। परन्तु स्तंभ छपने के पहले ही करोड़ों के लिए अनमोल हो जाता है। इस सब को मैनेज करने के कुछ ख़ास 'फंड़े' होते है, जो एक लोकप्रिय स्तंभकार ने मुझे बताए। 

एन. रघुरामन
वरिष्ठ स्तंभकार
  फंड़ा यह है कि लोगों के लिए लिखने के पीछे भी कई समर्पण और समझौते होते हैं। लेखक, स्तंभकार या पत्रकार इन समझौतों के फंड़े को सदैव आत्मसात करते हुए इस जनसंचार के पेशे में सक्रिय होता है। दैनिक भास्कर समूह के संपादकीय बोर्ड के सदस्य से भेंट करने का अवसर प्राप्त हुआ। दैनिक भास्कर के स्थाई दैनिक स्तंभ मैनेजमेंट के फंडे के लेखक, श्री एन. रघुरामन से डीएनए (दैनिक भास्कर का प्रमुख अंग्रेजी दैनिक अख़बार) के मुंबई स्थित हेड ऑफिस पर संप्रेषण सत्र (इंट्रेक्शन) हुआ। उन्होंने पत्रकारिता के अपने कुछ फंडों से हमें अवगत करवा कर मार्गदर्शित किया।

मैं और हम सब देवी अहिल्या विश्वविधालय इंदौर के पत्रकारिता एवं जनसंचार अध्ययनशाला के विधार्थी मुंबई के शैक्षणिक भ्रमण के प्रवास पर थे। बी. ए. जनसंचार (ऑनर्स) के आखिरी सेमेस्टर में मुंबई के मीडिया, सिनेमा और इनसे जुड़े वरिष्ठ अनुभवीयों से ज्ञान और मार्गदर्शन प्राप्त करना उद्देश्य था।

  और अपनी उम्मीदों से अधिक उत्कृष्ठ साबित हुआ। दुनियादारी के मायनों के अप्रत्याशित उद्देश्यों को हमने 'बाय वन गेट वन फ्री' की तरह पाया। रघुरामन जी से डीएनए के हेड ऑफिस के संपादकीय विमर्श कक्ष (एडिटोरियल मीटिंग रूम) में संप्रेषण सत्र (इंटरेक्शन) हुआ।

  श्री रघुरामन ने कक्ष में प्रवेश किया। रोज उठकर अखबारी कागज़ पर उनकी 2x2 की फोटो देखते थे। उनको दैनिक भास्कर के उनके स्तंभ (कॉलम) 'मैनेजमेंट के फंडे' के शीर्षक (हेडिंग) पर सरसरी नज़र से देख पूरा बाचते है। आज इनसे साक्षात और प्रत्यक्ष मार्गदर्शन पाने के लिए खुशी हो रही थी। उन्होंने पाठक, प्रस्तुती, कथा कथन (स्टोरी टेलिंग) और पत्रकारिता के विभिन्न सोपानों पर विस्तृत मार्गदर्शन किया। जनसंचार पेशे (मीडिया प्रोफेशन) में उसके लिए आवश्यक प्रतिबद्धता और ईमानदारी के लिए वे बोले-   आश्यर्य होगा जानकर मेरे पिता का निधन आज से दो दिन पहले हुआ है। मैं उनके निधन के दिन की अगली सुबह डीएनए के अपने ऑफिस में अपना काम संभालने आ गया  ।  क्योंकि मुझसे मेरे 2.5 करोड़ पाठक जुड़े हैं। पत्रकारिता की 'डेड-लाईन' किसी के डेड होने पर भी डेड नहीं हो सकती। मेरे 2.5 करोड़ पाठकों के द्नारा पढ़े जाने पर यह 'डेड-लाईन' 2.5 हजार करोड़ की अहमियत रखती है।

  उनके आर्शीवचनों को हमें प्रदान कर वे पुनः अपने व्यस्त कामों में फिर व्यस्त होने चले गए, आज की डेड-लाईन का पालन (फॉलो) करने। डीएनए में चाय और स्वल्पाहार के बाद हमने उनसे प्रणाम प्रकट किया। अपनी बस में बैठे हुए मै श्री रघुरामन की बातों में खोया था। उनके पिता के निधन के अगले दिन अपने पाठकों के लिखे उस स्तंभ को, उन पाठकों ने रोज की तरह शीर्षक पर सरसरी नजर दौड़ा कर। बाच लिया होगा, बस!!

  वह स्तंभ अपने छपने से पहले वाकई बहुत ज्यादा अनमोल था। पर यही मीडिया के मैनेजमेंट का फंडा है कि क्या पाठक उस दिन के स्तंभ का मोल आंक पाए?
फंडा यह है कि मीडिया की डेड-लाईन मीडिया-कर्मियों के लिए कभी 'डेड' नहीं होती, न ही मरती है। इससे मुझे जीवन भर के लिए सीख मिली कि मीडिया में डेड-लाईन को कभी 'डेड' नहीं होना चाहिए।



Tuesday, October 26, 2010

खूबसूरती दिखाने के लिए साधुवाद

संपादक के नाम पाती- अमित पाठे पवार

     नसत्ता निश्चय ही साधुवाद और आभार के काबिल है। इसने आज भी अपनी सादगी की खूबसूरती को बनाए रखा है। जबकि दूसरी ओर इस दौर में अखबार अंधे विकास के पथ पर भन्नाटा खा रहे हैं। जनसत्ता ने आज भी असल 70 प्रतिशत भारत को स्वयं से जोडे रखा है। यह अखबार आज भी गांव और निचले वगों के करीब नजर आता है। कुम्हार का दीयें बनाने से लेकर मूतिकार, बुनकर, लोहार के काम करने से लेकर खेती-बाड़ी जैसी तमाम फोटों जनसत्ता में अक्सर दिखाई देती रहती हैं।

    ऐसी फोटों भारत की असली तस्वीर का एक बडा हिस्सा हैं। इसे जनसंचार माध्यमों में स्थान देना आवश्यक है। हमारी मुख्यधारा की मीडिया को भारत की तस्वीर की ओर झांकना चाहिए। परन्तु हमारा मीडिया भारत की बड़ी तस्वीर को छोड़ इंडिया के टुकड़े को ही नापता रहता है। निचले वगॅ के बुनियादी फोटों और कवरेज हमारे आज के मीडिया से गायब होते जा रहे हैं। इस तरह भारत और इंडिया के बीच की बढ़ती खाई के लिए हमारा मीडिया भी जिम्मेदार है।

   जनसत्ता के 25 अक्तूबर के अंक में नांव पर नदी पार कर मतदान को जाते ग्रामीण (पेज-1) और मिट्टी के दीप गढ़ते कुम्हार का फोटो (पेज-9), साथ ही पेज-7 के अन्य फोटों को प्राथमिकता देकर प्रकाशित करना प्रशंसनीय हैं। भारत की मीडिया से इतर हमारी मुख्यधारा की मीडिया महेन्द्रसिंह धोनी और उनकी पत्नी के समुद्र में अटखेलियां करने को इस देश की तस्वीर मानता है (दैनिक भास्कर, 25 अक्तूबर, पेज-1)। जबकि ऐसी तस्वीरें देश की अधूरी तस्वीरें है, भारत की नहीं।

   जनसत्ता की इसी खूबसूरती का मैं कायल हूं। इसलिए तीन साल पहले इंदौर में रहते हुए भी मैं इस रोज लेता था। वहां मुझे एक दिन बाद और 1 रूपए महंगा मिलता था, पर खूबसूरती के लिए ये सब लाज़मी लगता था।

Monday, October 25, 2010

समय से छहः साल आगे मेरी घड़ी


अमित पाठे पवार

मैं स्कूल में 10वीं में पढ़ाई कर रहा था। एक दिन मेरे पापाजी ने मुझसे कहा- 'बेटा अच्छे से पढाई करना है, फस्टॅ डिवीजन लाना है। फर्स्ट डिवीजन से पास होगा तो तुझे मैं घङी खरीद कर दूंगा।' मैनें परीक्षा दी और 69 प्रतिशत लेकर फस्टॅ डिवीजन से पास हो गया। समय बीतते 11वीं और 12वीं भी पास हो गया। कभी न मैनें पापा को घङी के लिए कहा, न पापा को याद आई। हालांकि मुझे अच्छी तरह याद रहा कि पापा ने मुझे घङी देने का वादा किया था।

मैं कॉलेज पहुंच गया और मेरा ग्रेजुएशन भी पूरा हो गया। इस दौरान मैनें कुछेक बार घङी देने के वादे की याद पापाजी को दिलाई भी थी। ग्रेजुएशन के बाद अब पीजी डिप्लोमा करने दिल्ली भी पहुंच गया। मैं सितंबर में रक्षाबंधन की छुट्टी में घर गया था। पापा ने मुझसे कहा- 'बेटा चल बैंक जाना है और ये अलामॅ घङी भी खराब हो गई है, सुधरवा के लाते है।' हम घङीवाले की दुकान पहुंचे। दुकानदार को घङी दी और वो सुधारने लगा। मैनें दुकान में रखी हाथघङियां देखी और पापा से कहा- 'पापा, मेरी 10वीं पास की घङी तो दे दीजिये। आप देते ही रह गए। पापा ने हंसते हुए कहा- 'अरे हाँ, तेरी घङी तो रह ही गई।' मैंने कहा- 'हां, दसवी पास होने पर देना था। अब तो 12वीं पास हो गया, ग्रेजुएशन भी हो गया। अब पीजी चल रहा है, घङी कब देंगे।' वे बोले- 'हां यार तू आज ले ही ले घङी।' पापा ने दुकानदार से कहा- 'भाईजान इसे इसकी पसंद की घङी दे दो। दसवीं पास की घङी देना बाकी है। अब तो इसकी नौकरी लग जाने का समय आ रहा है। नहीं तो अब ये मुझे ही घङी खरीद के दे देगा।' मैंने ठीक वैसी ही घङी पसंद की जैसी मेरे पापा पहनते है। सादी, वाटरप्रुफ और सस्ती 450 रूपए की।

थोडी देर में अलार्म घङी भी सुधर गई और मेरी नई घङी मेरी कलाई पर आ गई। पापा ने अपना पर्स निकाला और दुकानदार से पूछा- 'भाईजान कितने पैसे हुए।' पापा ने पर्स देखा और कहा- 'अरे भाईजान पसॅ में पैसे भी नहीं है, ये ढाई सौ रूपए है ले लो बाकी बाद में देता हूं। हम बैंक ही जा रहे थे, यहां आना हुआ तो बच्चे ने मौका देख के चौका मार लिया। इसने अपनी पैंडिंग घङी भी ले ली।' दुकानदार ने कहा- 'ठीक है ना पाठे जी बाद में आते-जाते पैसे दे दीजिएगा। अच्छा हुआ वरना बच्चा आपको ही घङी दे देता।'


ऐसे मेरी 10वीं पास की घङी मुझे वादे के छहः साल बाद मिली। इस तरह ये घङी मुझे मिलने के वादे के समय से छहः साल आगे थी। घङी मिलने पर बहुत खुशी हुई। बडे गवॅ और उत्साह से कलाई पर बांधा और घङी मम्मी को दिखाया। अब बडे शौक से इसे अपनी कलाई पर बांधता हूं। ब्लॉग

Tuesday, September 7, 2010

हिंदी पखवाड़ा

नन्दलाल शर्मा
लो भाइयो, आ गया हिंदी पखवाडा (1sep से 15sep ) तक ,लेकिन समझ में नहीं आता क़ि जब सारे उच्च वर्ग के लोग अंग्रेजियत के पल्लू से चिपके हों तो कितनी प्रासंगिकता रह जाती है इन आयोजनों की, क्या आप मुझे बतायेगे की ये पखवाड़ा हिंदी को श्रदांजलि देने लिए आयोजित किया जाता है या जन्म दिवस मनाने के लिए...

इस समय अगर आप दिल्ली के किसी इलाके में सरकारी कार्यालयों के बगल से गुजरते होगे तो इस पखवाड़े को मनाने के लिए सरकारी अनुरोध लटका हुआ दिख जायेगा. पता नहीं कितने लोग इसका पालन करते होंगे, लेकिन एक बात तो तय है की हममें से हर कोई अपनी मातृभाषा को उसका सम्मान देने में असमर्थ है, चाहे वो इस देश का पीएम हों या प्रेसिडेंट,  इस देश के नेतागण जब भी किसी को संबोधित करते है तो अधिकतर अंग्रेजी में ही करते है मानो उन्हें हिंदी आती नहीं या देश की जनता समझती नहीं, इस देश में एक वर्ग ऐसा भी हैं जो सार्वजनिक स्थानों पर गिटिर- पिटिर अंग्रेजी बोलकर खुद को एन आर आई साबित करता है और हिंदी बोलने वालों को इस नज़र से देखता है मानो वो नाली का कीड़ा हों.

शर्म आनी चाहिए उन लोगो को जो पूरे साल अंग्रेजियत झाड़ते है लेकिन सितम्बर के पहले हफ्ते में हिंदी में काम करने को प्रोत्साहित करतें है, आज हर कोई ग्लोबल होने और खुद को एनआरआई दिखाना चाहता है. इस देश के स्टार हिंदी के सरल शब्द नही लिख पाते, इस देश की भावी पीढ़ी खुद हिंदी लिखने में असमर्थता जताती है, हिंदी के साधारण शब्दों को लिखने को कह दे तो वो आप का मुंह देखते रह जाते है.

महात्मा गाँधी के शब्दों में किसी दूसरी भाषा को जानना सम्मान की बात है, किन्तु उसे अपनी राजभाषा की जगह देना शर्मनाक, यहाँ मै एक दिलचस्प उदाहरण देना चाहूँगा..

मेरे अपने ही भारतीय जनसंचार संस्थान के व्याख्यान समारोह के बारे में,यहाँ जितने भी लोग आये सब लोग अंग्रेजी समूह के थे और अपनी बात को भी अंग्रेजी में रखा और यह कहते रहे की हिंदी जर्नलिज्म के बच्चे चिंता ना करे मै अपनी बात हिंदी में भी कहूँगा, हाँ एक बात और यहाँ के शिक्षक गण पढ़ाते तो हिंदी जर्नलिज्म के बच्चो को पर अंग्रेजी के पॉवर पॉइंट द्वारा... समझ सकते है आप उनकी विवशता.. शुक्र है उन छात्रों का जो इतनी क्षमता रखते है की वो उनकी बातो को समझ सके.. लेकिन मै इन कथनों के आगे खुद को शर्मसार और निरुतर पाता हूँ, लेकिन निराशा हुई हमें उनसे नहीं अपने संस्थान के नीति निर्धारको से जिन्होंने ऐसे लोगो को बुलाया, शायद यहाँ भी अंग्रेजियत को अपनाने की लालसा है, सड़क पर निकलिए तो हिंदी में लिखे विज्ञापनों को पढ़कर, लिखने वाले के ज्ञान पर दया आती है जो अपनी भाषा को शुद्ध नहीं लिख पाते, पिछले कुछ समय की बात है एक टीवी प्रोग्राम में देश के जाने माने स्टार महोदय को हिंदी में सिर्फ इतना लिखना था की ' क्या आप पांचवी पास से तेज़ है ' जिन्होंने कोशिश तो की पर असफल रहे, कितना मुश्किल है उनके लिए अपनी भाषा को लिखना और उनका हिंदी ज्ञान कितना हास्यापद.

श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कहा था "अंग्रेजी हमारे देश में बहु बनकर रह सकती है मां नहीं "लेकिन आज तो इसका उल्टा देख रहा हूँ, लोगो ने अपनी बहु को ही मां बना डाला है, और इस सम्बन्ध को परिभाषित करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं है.

Monday, September 6, 2010

मीडिया-मंत्रा Media mantra लो भैया..


[यह व्यंग मैंने अपने कॉलेज (एस.जे.एम.सी., दे.अ. वि.वि., इंदौर) के वार्षिक-उत्सव 'मीडिया-मंत्रा 2009' पर उस समय ही लिखा था. जिसे मैं अब अपने ब्लॉग पर लिखकर अपने उन सहपाठियों तक पहुचाना चाहता हूं. वे इसे आसानी से  खुद को जोड़ और समझ पाएंगे भी पाएंगे.]
अमित पाठे पवार.
    हाँ आओ मीडिया-मंत्रा है. मीटिंग में आओ.. मीडिया-मंत्रा है. कमेटी बनाओ.. मीडिया-मंत्रा है. परफोर्म करो.. मीडिया-मंत्रा है.

हर साल मार्च-अप्रेल में मेरे कॉलेज में यह 'मंत्र' बहुत सुनने में आता है कि- मीडिया-मंत्रा है. मीडिया-मंत्रा हमारे कॉलेज का वार्षिक-उत्सव का नाम है. लडकियों कि तरह होने वाले 'नखरों' के बाद आखिर तो यह होता ही है. डेट आगे पीछे होते-होते... दो-तीन दिन पर आकर जम ही जाती है.

अब मीडिया-मंत्रा के 'मंत्र' के लिए यजमान कौन बनेगा? पंडित कौन होगा? इस अनुष्ठान आयोजन कौन-कौन से और कैसे होंगे. भंडारे में भोजन क्या होगा? ...और 'मीडिया-मंत्रा' के विसर्जन पर डी.जे. होगा या नहीं...? ऐसे कई मंत्र भी मीडिया-मंत्रा के साथ उच्चारित होंगे ही.

लो भईया मीडिया-मंत्रा है.
आइये गणेश जी का ध्यान करें... ॐ मीटिंग से शुरुवात करते हुए पहली आहुति डालते है. पहले ये बताओ की भाई! मूसल से किसकी दोस्ती हो गई है? 'कोर्डीनेटर' कौन बन गया है! बन गए हो तो लो अब झेलो..!

मीटिंग - "देखिये, एच.ओ.डी. सर से हमने बात की है. उन्होंने इस डेट के पहले सब कुछ पूरा कर लेने को कहा है. ऑडिटोरियम इस-इस डेट को खाली है." लो! कोर्डीनेटर जी, गणेशजी का ध्यान करने से पूर्व ही त्रुटी! सब मिल कर मीडिया-मंत्रा का यजमान तो चुन लेते. कौन श्रेष्ट और वरिष्ट है. और ये ऑडिटोरियम वालो की डेट्स से क्या!? मीडिया-मंत्रा के लिए कर्मठ ज्योतिषियों से विचार कर महूर्त तो निकलना चाहिये था.

चलो छोड़ो, भागते भूत की लंगोट ही सही...! ॐ मीटिंग को आगे बढाओ...

मीटिंग - "देखिये आप एक-एक कर के अपनी ऑपीनियन दीजिये..., अरे! पहले एक को तो बोलने दीजिये. उसकी पूरी बात तो सुन लो...! नहीं, एच.ओ.डी. सर ने इसकी परमिसन नहीं देंगे. उन्होंने हमे पहले ही गाइड-लाइन दे दी है. हमें कुछ अलग करना चाहिये यह तो पहले भी हुआ था." यजमान- "उफ़! तो क्या अब यहाँ स्वयंवर करवा दे क्या?! कहाँ कोर्डीनेटर बनकर फंस गए है..."

अब मीटिंग के बाद मीडिया-मंत्रा में एक-दो फेरबदल हो जाएगा, बाकी रहेगा तो हर साल जैसा ही.
परन्तु यजमान मंत्र उच्चारण (एंकरिंग) तो मैं ही करूँगा. नहीं मै अच्छी एंकरिंग करती हूँ. झगड़ा नहीं! इसके लिए राज-ज्योतिषी (फैकेल्टी) ऑडिसन लेकर निर्णय लेंगे.

अरे यार...! मै भी कहाँ इसमें उलझ रहा हूँ! दो साल मीडिया-मंत्रा में आहुति डाल कर मैंने अपना 'पुण्य' तो कमा लिया है न! अब इन 'नए' लोगों की बारी है. अपन तो अब सन्यास लो. चूँकि सत्यनारायण कथा के अंत में हुई त्रुटी की क्षमा मांग लो तो भगवान त्रुटियाँ भूल कर खुश हो जाते है. परन्तु मेरे कॉलेज का मीडिया-मंत्रा  महान अनुष्ठान है. इसमें हुई त्रुटियों को यहाँ के लोग कभी नहीं भूलते है. मुझे अभी तक  मूसल की याद दिला देते है.

छोड़ो ये सब! अपन तो प्रसाद और भंडारा-भोजन खाकर ही बचा हुआ पुण्य भी पा लेंगे. मीडिया-मंत्रा कथा का प्रथम अध्याय यहीं समाप्त होता है.

पर याद रहे श्रद्धालुओं 'प्रयोग' (हमारा हॉउस-जर्नल) पुराण में मीडिया-मंत्रा के बारे में नवम अध्याय में वर्णित है कि मीडिया-मंत्रा में केवल प्रसादी और भंडारा-भोजन करके ही इस अनुष्ठान के सारे पुण्य प्राप्त किए जा सकते है. तो मीडिया-मंत्रा के लिए जैसे भी कर्म करो पर भंडारे का भोजन जरूर खाना. क्या पता कोई चमत्कार हो जाए और मीडिया-मंत्रा विसर्जन पर डी.जे. पर नाचने का परम आनंद प्राप्त हो जाए.

                                         ll ॐ मीडियामन्त्राय नम: ll

Friday, September 3, 2010

विभाजन प्रक्रिया के उत्प्रेरक

35 रायसनिक उत्पादों के बाद भी भाषा के आधार पर राज्यों के गठन की प्रक्रिया जारी है. जिसके सक्रिय उत्प्रेरकों से यह प्रक्रिया आगे भी जारी रह सकती है.
अमित पाठे पवार.
    भी ने एक जुट होकर देश को आज़ाद करवाया, तब हम भाषा के आधार पर बाटें हुए नही थे. आज़ादी के बाद भाषा के आधार पर राज्यों का गठन किया गया. इसका मूल यह था की सामान भाषा, बोली, संस्कृति व रहन-सहन वाले लोगों को मिलाकर बनाये गए राज्य भविष्य में अधिक सुगठित रहेंगे. भाषा के आधार पर राज्यों के गठन के विपरीत परिणाम भी हुए है. ऐसा पिछले कुछ सालों से ज्यादा देखने में आया है. भाषा के आधार पर राज्यों के गठन का फार्मूला देश के 'विघटनकारियों' ने ऐसे सीख लिया है, जैसे किसी छोटे बच्चे ने माचिस की तीली जलाना सीख लिया हो. जो खतरनाक है.

भाषा के आधार पर राज्यों के विभाजन के 'फार्मूले' की रायसानिक प्रक्रिया आज तक जारी है. 28 राज्य, 6 संघीय प्रदेश और एक राष्ट्रीय राजधानी. कुल 35 'रायसानिक उत्पादों' के बाद भी यह 'रायसानिक प्रक्रिया' ख़त्म नहीं हुई है. असल में इसे खत्म नहीं होने दे रहे है वे 'उत्प्रेरक' जो भाषावाद और प्रादेशिकता के नाम पर राज्यों का विभाजन करते है. इन उत्प्रेरकों द्वारा लगाई गई आग अभी महाराष्ट्र और तमिनाडु में लगी हुई है. इस आग की आंच सारे देश के लिए खतरा है.

अलग राज्य का गठन तो मानो एक परंपरा हो गई है. अभी भी तेलंगाना, अलग मध्यप्रदेश, विन्ध्याचल, विदर्भ और न जाने कौन-कौन से अलग राज्यों की मांगे उठ रही हैं. हर कोई अपनी भाषा के राज्य का अलग गठन चाह रहा है. इसकी सबसे सक्रिय आग तमिलनाडु में लगी हुई है, अलग राज्य तेलंगाना को लेकर.

दूसरी ओर महाराष्ट्र में भाषावाद और प्रादेशिकता को लेकर अलग ही 'ड्रामा' चल रहा है. यहाँ मनसे और शिवसेना के सौजन्य से चल रहा है. जैसे- उत्तरभारतीयों की पिटाई, महाराष्ट्र विधानसभा में हिंदी में शपथ लेने पर विधायक से बदसलूकी, टैक्सी ड्राइवर को लाइसेंस के लिए मराठी अनिवार्य होना आदि. महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना और शिवसेना राष्ट्रवादी बयां देने वालों पर खुलेआम आपत्तिजनक टिपण्णी कर उन्हें धमका रहे है. उन्हें 'देशद्रोही' कह रहे है. राजनेता, अभिनेता, खिलाड़ी, लेखक, पत्रकार या और कोई हो. इन दोनों पार्टियों ने किसी को नहीं छोड़ा है.

हमारे लोकतंत्र के संविधान से खिलवाड़ करने वाली इन पार्टियों के खिलाफ सरकार और विपक्ष को कड़े कदम उठाने चाहिये. परन्तु पार्टियाँ अपने गठबंधन और राजनितिक लाभ के कारण देश में भाषाई-विवाद और राज्यों के विभाजन की आग से अपनी राजनीतिक रोटियां सेक रही है. हमें राज्यों के विभाजन की प्रक्रिया के सभी उत्प्रेरकों को निष्क्रिय कर नष्ट करना होगा. प्रादेशिकता और विभाजन के इस बबूल के पौधे को जड़ से उखाड़ फेंकना होगा, अन्यथा इसके कांटें हमारे देश को भविष्य में भी चुभते रहेंगे.

Friday, August 13, 2010

किताबें 'परदे के पीछे'

जयप्रकाश चौकसे
अमित पाठे पवार.
       र्मी और उमस  भरा मुंबई का दिन था. हम देवी अहिल्या विश्वविधालय के पत्रकारिता एवं जनसंचार अध्यनशाला के स्टुडेंट यहाँ पहुंचे हुए थे. हम  हम सभी बी. ए. (ऑनर) जनसंचार फ़ाइनल ईयर के स्टुडेंट एजूकेशनल ट्रिप पर यहाँ पहुचे थे. हम यहाँ मुंबई और पुणे के विभिन्न मीडिया व शिक्षा संस्थानों और फिल्म-स्टूडियो के भ्रमण हेतु यहाँ गए थे. यहाँ की एजूकेशनल विजिट के लिए सीनियर फिल्म पत्रकार और कॉलमिस्ट जयप्रकाश चौकसे का विशेष सहयोग रहा. श्री चौकसे हमारी सीनियर फैकल्टी श्रीराम ताम्रकार के पुराने घनिष्ट मित्र है. चौकसे जी ने मुंबई में अपने संपर्कों से हमें सहयोग किया. मुंबई से वापसी के समय हमने उनसे मिलकर धन्यवाद कहकर आभार प्रदर्शन करना चाहा. यह अप्रत्याशित था, इसकी सलाह हमारे साथ गये फैकल्टी श्री आनंद पहारिया ने दी. हमने फ़ौरन सर की बात मान ली. सर ने तुरंत चौकसे जी के मोबाइल की घंटी घनघना दी.

चौकसे जी ने फ़ोन पर कहा 'अरे इसकी क्या जरूरत है, मैंने कोई बड़ा काम थोड़े किया है.' हमारे आनंद सर ने उनसे कहा की बच्चें आपसे मिलने और मार्गदर्शन के भी इच्छुक है. चौकसे जी ने कहा 'हाँ तो जरूर मिलिए पर मैं अभी अपने घर पर नही हूँ. अभी सलमान  के फ्लैट पर हूँ, आप यहीं आ जाइये.' हुम पुणे के लिए निकल रहे थे. हमने बस घुमाई और सलमान खान के फ्लैट को मोड़ दी.

हम पूरी क्लास के 34 क्लासमेट्स और दो फैकल्टी एक साथ थे. चौकसे जी सलमान के फर्स्ट फ्लोर स्थित फ्लैट से नीचे आये. उन्होंने कहा चलो वहां समुद्र के किनारे बातें करते है. उनसे काफी बातें हुई. वे काफी बोल्ड व्यक्ति है. खड़ी बातें करते है. मुम्बईया में बोले तो बिंदास!

उन्होंने निजी और प्रोफेशन दे जुड़ी ढेरों बातें की. वे बोले 'अच्छा लिखने के लिए खूब पढ़ना बहुत जरूरी है. मै आज भी रोज दिन में छः से आठ घंटे पढता हूँ. शायद इसलिए मेरी दोनों आँखों का ऑपरेशन हो चुका है. मेरी आँखों में 18 साल के जवान का लेंस है.' हँसते हुए बोले- 'तो लड़कियों मुझसे बचकर रहना. देखो बच्चों लिखना तो मेरा शौक है, मैं पैसों के लिए थोड़े लिखता हूँ. लिखने से मुझे जितने पैसे मिलते है उससे ज्यादा तो मै अपने ड्रायवर को देता हूँ.' उन्होंने अपने हाल ही के कुछ कॉलम की चर्चा भी की. साथ ही हमारी फैकल्टी श्रीराम ताम्रकार के बारे में भी बातें की.

चौकसे जी ने बताया बताया मै भी मूलतः इन्दौरी हूँ. वहां मैंने अपने घर में एक काफी बड़ी निजी लाइब्रेरी बना रखी है. अब जब इंदौर आऊंगा तो लाइब्रेरी पर और ज्यादा ध्यान दूंगा. तुम्हारे विश्वविधालय जरूर आऊंगा. ' हम में से एक कोमल सी आवाज आई- 'सर सलमान.....'. चौकसे जी ने कहा 'मुझे लग ही रहा था कोई लड़की अब ये कहेगी.' 'आज सलमान की पेशी है, वो कोर्ट गया है. वो होता तो बोल देता पर वो तो कल ही आएगा. मै तो उसके अब्बाजान से मिलने आया था.'
मैंने पूछा सर आपके कॉलम में आपकी फोटो अचानक क्यों बदल दी गई? पहले बहुत पुरानी फोटो थी अब अचानक बदल दी गई है. हम तो पुरानी फोटो के अनुसार ही आपको इमेजिन करते थे. वे हँसे और बोले 'ये अखबार वाले न जाने कहाँ-कहाँ से फोटो ले लेते है. मै तो न खिंचवाता हूँ, न  ही देता हूँ. उनको कहीं से फोटो मिल गई होगी तो नई फोटो देने लगे.'

जयप्रकाश चौकसे जी डाउन-टू-अर्थ और बोल्ड व्यक्तित्व के है. उन्होंने हमे एक सबसे बड़ा गुरुमंत्र दिया की "अच्छा लिखने के लिए खूब पढ़ना जरूरी है." इससे मुझे ये यह तो पता चल गया की उस 'परदे के पीछे' किताबें है. गोयाकि गर्मी तो थी पर समुद्र के किनारे की लहरों की ठंडी हवा के साथ  चौकसे जी की बातें अद्धभुत और यादगार थी. परदे के पीछे के लेखक को जानने का मौका मिला.

चौकसे जी से चर्चा में काफी समय गुजर गया पता ही नही चला. वे बोले- 'अरे बच्चों तुम्हे पुणे पहुँचने में रात हो जाएगी, बस में बैठों. तुम्हे  फ्यूचर के लिए ऑल द बेस्ट, फिर मिलेंगे....





-अमित पाठे पवार, आईआईएमसी (amitpathe@gmail.com)
My facebook/Orkut/Twitter Profile- Amit Pathe Pawar
Mob. # 09717563080

Wednesday, August 11, 2010

महानगर Metro-city की मरीचिका

  स्नातक के बाद मैं दिल्ली अपनी पढ़ाई के लिए आया. आते से फ़ौरन अपना तो कोई ठिकाना नहीं था. दोस्त से फ़ोन पर बात हुई तो उसने अपने घर रुकने के लिए बुला लिया. तीन- चार दिन वहां बिताने के साथ ही अपने रहने के ठिकाने की तलाश जारी थी. तलाश के दौरान कई किराये के कमरें देखने के बाद एक कमरा ज़चा. अभी उसमें पहले से कोई रह रहा था. दोस्त के यहाँ समय गुजरना अब खुद को सम्मानजनक नहीं लग रहा था. मैंने जिस रूम में वह लड़का रह रहा था उसका अडवांस देकर उसे बुक कर लिया.

   उस लड़के के महीने की गिनती दो दिन बाद ख़त्म हो रही थी. बहरहाल मुझे अपने दोस्त को इस हेल्प के लिए धन्यवाद कह कर, अपने रहने के ठिकाने जाना था. मैंने उस बुक किए रूम में रह रहे लड़के से अपनी बात की. मैंने कहा क्या मैं आज से ही यहाँ रह सकता हूँ? वह सहयोगात्मक रवैये से पेश आया और उसके बचे हुए दो दिन अपने साथ रहने को कह दिया. मैं दो दिन उसके साथ रहा. अब उसके महीने की गिनती ख़त्म हो चुकी थी, पर अगले दो दिन तक वो वहां से नहीं  गया.

  तीन-चार दिन उसके साथ रहने क बाद उसके बारे में थोड़ी बहुत बातें सामने आने लगी. कुछ तो वो बताता और बाकी मैं स्वयं अपनी उधेड़-बुन से समझ जाता. मैं जो अब तक उसके बारे में समझ पाया था, वो ये कि अनुज यू.पी. के एक गाँव से है. उसका उसके घर से रिश्ता अब लगभग न के बराबर है. वो हाईस्कूल तक पढ़ा निम्न-मध्यवर्गीय किसान प्रष्टभूमि से था. वो दिल्ली पांच साल पहले 'पैसा' कमाने आया था. पर वो भी उसी 'भीड़' का अभिन्न हिस्सा था जो मेट्रो-सिटी दिल्ली 'पैसा' कमाने आते है. यह भीड़ मेट्रो कि तेज़ रफ़्तार कि बराबरी करने का सपना सच नहीं कर पाती. अनुज भी ये सपना पूरा नहीं कर पा रहा था, तो उसने स्वयं को गैरकानूनी कामों की ओर मोड़ लिया. अब वह अवैध तस्करी और खरीद-फरोख्त में लिप्त हो गया.

  मैंने कमरे में लड़की के कपड़े और चीजें देखी. अनुज से पूछने पर उसने बताया एक लड़की जो मूलतः छत्तिसगढ की है, यहाँ मेरे साथ रहती थी. वो कुछ दिन पहले यहाँ से चली गई है. मुझे कमरे में मंगलसूत्र और मांग के सिंदूर कि डिब्बी दिखाई दी. मैंने अनायास ही पूछ लिया- 'ये सब किसका है?' ये कहने के बाद मुझे लगा कि मैंने कुछ ज्यादा ही जासूसी अंदाज दिखा दिया है. पर अनुज ने फ़ौरन ही उसका जवाब देने लगा- 'वो लड़की यहाँ मेरी पत्नी बनकर रहती थी. मकान मालिक को दिखाने के लिए वो सुहागन दिखना पड़ता था. हमने मकान मालिक से ये कहकर कमरा किराये पर लिया था कि हम पति-पत्नी है. आगे वो ही सब कुछ बताता चला गया. मैं समझ गया यह लड़की भी अनुज कि तरह ही मेट्रो-सिटी में आई 'भीड़' का हिस्सा थी. वो 'पैसा' कमाने के लिए अनुज की तरह ही गैरकानूनी धंधो में लिप्त हो गई. असल में दोनों की मुलाकात उनके अवैध धंधे करने के दौरान ही हुई थी. इसमें लड़की अनुज की सीनियर थी और ज्यादा कम भी लेती थी. दोनों को रहने के लिए कमरे की जरूरत थी और अनुज को लड़की के पैसे की. दोनों साथ रहने लगे. इससे उनमे स्वाभाविक ही रिश्ते कायम हो गए. इसे हम सह-सम्बन्ध (लिव-इन-रिलेसन ) कह सकते है. कुछ हफ्तों के संबंधो के बाद उन दोनों में जमी नहीं और लड़की उस कमरे को छोडकर चली गई. अनुज भी उस कमरे में सामान रखकर दिल्ली छोड़ एनसीआर में कहीं चला गया. उसने रहने का ठिकाना मिलने पर अपना सामान ले जाने की बात मुझसे कही और चला गया.

  अगले ही दिन वह लड़की कमरे पर आई. उसने मुझसे अनुज के बारे में पूछा. मैंने जाहिर है उसकी कोई खबर न होने की बात कही. वो बोली 'क्या मै अपना सामान ले जाना चाहती हूँ. 'मैंने कहा मेरी सहमति देने न देने का कोई सवाल ही नहीं उठता. उसने अचानक ही कहा 'क्या आज रात मैं यहाँ रह सकती हूँ?' मुझे डेरी-मिल्क का टीवी विज्ञापन याद आ गया.... मैंने वो विज्ञापन भूलकर सोचा, अरे! ये तो मुझसे सच में कह रही है. मैं अवाक् सा हो गया. एक अनजान लड़की अगर बैग उठाए आपके दरवाजे के सामने आ खड़ी हो और ये कहे, तो थोड़ी देर के लिए शायद कौन अवाक् न हो जाये.

  मैंने उससे कहा 'क्या.. क्या कहा आपने?' वो बोली 'मैं मुश्किल में हूँ और मेरे रात गुजरने के लिए कोई ठिकाना है न पैसे. प्लीस हेल्प मी!' मैंने कहा आप अपना सामान ले लीजिये. वो कमरे मी आई और अपना सामान बैग में रखने लगी. उसने घबराते हिचकाते कहा 'मै यहाँ कही से भागकर आई हूँ.' मैं उसके बारे में कुछ-कुछ अनुज से पहले ही जान चुका था. आगे वो बोली- 'मै अपने गिरोह की कैद से छूटकर आई हूँ. मैंने तीन दिनों से न ठीक से कुछ खाया है, न बाहर का सूरज देख पी हूँ. मेरे पास रहने के कोई ठिकाना नहीं है.' मैंने स्वयं को किसी जाल में फंसाए या ठगे जाने की सम्भावना को ध्यान में रखते हुए, कोई खास प्रतिक्रिया नही दी. पर मैं चाह रहा था की उस लड़की की मदद कर दूँ. मेरा दिल्ली में दूसरा सप्ताह ही था और मैं किसी मामले में उलझना नहीं कहता था. लड़की ने बताना शुरू किया कि किस तरह वो खिड़की से कूद कर भाग आई. उसने कहा यह सारा सामान मेरा ही है. मैंने उससे पूछा वो इस अवैध कारोबार में कैसे लिप्त हो गई? उसने बताया मेरे माता-पिता नहीं है, मैं उनकी एक इकलौती संतान हूँ. मैं पैसा कमाने के लिए दिल्ली आई. सीधे तरीके से ज्यादा नहीं कमा पाई और अवैध कारोबार में लिप्त हो गई. अब गिरोह से बचने के लिए भागती फिर रही हूँ. मेरे पास पैसे भी नहीं है. मैंने उससे ये काम छोड़ने को कहा तो वो बोली सिक्कों कि तस्करी में पैसा बहुत है, लाखों...

  मै बैठा अख़बार पढ़ने में मशगूल था. वो बैग में अपने कपड़े और सामान रख रही थी. अचानक उसने अपना मनी-पर्स निकलते हुए कहा 'पैसे भी नहीं है मै कहाँ जाऊ.' जो कपड़े वो बैग में रख चुकी थी उसे बाहर निकालकर उनके बारे में फिजूल बातें करने लगी. वो अभी भी घबराई हुई थी. वो कांपती आवाज़ में अपने टॉप्स कि बातें करने लगी, वो बातें जो उसे एक लड़के से शायद नहीं करनी चाहिये. कपड़ों कि बात करते हुए बोली 'आप समझ रहे है न मैं क्या कहना चाहती हूँ, मेरे पास पैसे नहीं है. आप ये दरवाजा बंद कर लीजिये, मुझे पैसों कि जरूरत है.' मै हतप्रद था. मैंने छिटक के सोचा और कहा 'क्या कहा आपने? मैं आपको दरवाजे के बाहर छोड़ दूँ!' वो बोली नहीं. अरे आप ये क्यों करेंगे. वो पुनः कपड़े की बातें करने लगी अब वो यौनाकर्षण युक्त भावभंगिमा बनाने लगी. मैंने उसे दूसरी बातों से टाला और कुछ देर बाद मेरा रूमपार्टनर आ गया. उसके आने के बाद उसका व्यवहार बदल गया. अब हम दोनों ने उससे कह दिया कि आप सामन ले लीजिये. जवाब में उसने कहा मेरा अभी रहने का कोई ठिकाना नहीं है, आधा सामान में बाद में ले जाउंगी.

  उसके जाने के बाद मैंने सोचा हमारे देश में कितने लोग दिल्ली जैसे मेट्रो शहर में 'पैसा' कमाने के लिए जाते है. वे 'मेट्रो' कि रफ़्तार के साथ नही दौड़ पाते न 'पैसा' कमा पाते है. ऐसे में वो शहरी-गरीब बनकर रह जाते है. जल्दी और ज्यादा पैसे कमाने के लिए गैरकानूनी और आपराधिक कार्यों में लिप्त हो जाते है. अपराध की दुनिया का भंवर उन्हें गर्त में खींच लेता है, फिर चाहने पर भी वो इससे बाहर नहीं आ पाते. दूसरी तरफ इससे शहरों में आबादी का दबाव, अपराध और शहरी-गरीबी भी बढ़ती है.

  अनुज और इस लड़की के तरह के लोगों को गावों से शहरों की ओर पालयन करने से पूर्व सोचना होगा. मेट्रो शहर में जाने के उनके मायने क्या है? वे शहरी-गरीबी का हिस्सा बनना कहते है या अपराध की गर्त का. दोनों ही स्तिथियों में उनकी जिंदगी गाँव की जिंदगी से तो कहीं बेहतर ही होती है. गाँव के 'झरने' से अपनी 'प्यास' बुझाने के बजाये वो महानगरों की मिरिचिका की ओर अंधी दौड़ लगाने लगते है, और अंत में भ्रम दूर हो जाता है.

-AMIT PATHE
IIMC Delhi (HINDI JOURNALISM)  Mob. 09717563080
 

Monday, August 9, 2010

मेरी स्कूली कॉलेज-क्लास

फीचर


स्कूल क्लास से कॉलेज-क्लास में कितना अंतर होता है. इनमे एक समानता होती है, यहाँ जाने पर अच्छा नही लगता और न जाने पर बुरा.

स्कूल-क्लास से कॉलेज-क्लास में आकर बैठने पर कितना कुछ बदल जाता है. ये दोनों ही समय यादगार होते है, पर स्कूल क्लास के लम्हों की बात ही कुछ और हुआ करती थी. मुझे याद है जब हमने स्कूल को वास्तव में अपना 'मिनी-कॉलेज' स्वयं ही बना लिया था. कॉलेज के सारे मज़े तो स्कूल क्लास में ही ले लिए थे. इसलिए अब कॉलेज में कुछ अलग सा नही लगता था. कॉलेज-क्लास पर मानो स्कूल-क्लास ने अतिक्रमण कर लिया है.

यहाँ कॉलेज-क्लास में यूनिफ़ॉर्म में नहीं है, पर स्कूल के विपरीत अब रोज़ बैग लेकर जाते है. क्लास में अनुशासन से बैठते है, वरना हमारे 'मिनी-कॉलेज' में तो.... क्या बताए. टीचर आगे के दरवाजे से अन्दर आते थे, और हम पीछे के दरवाजे से बाहर जाते थे. अब तो फैकल्टी के आने का इंतजार करते रहते है. अब एक दिन गैरहाजिर होना अखरता है, पर स्कूल में ख़ुशी होती थी.

स्कूल के इन्टरनल (त्रिमासिक और अर्ध- वार्षिक परीक्षा) में पास होने कोई इच्छा नहीं रहती थी. अब कॉलेज के एग्जाम के पहले की रात नोट्स छानते बीतती है. अफ़सोस! मेरे स्कूल में लड़कियां नहीं थी. इसलिए घर से निकलते और क्लास में जाने से पहले खुद पर ध्यान देने की कोई जरूरत नहीं होती थी. टयूसन-क्लास जाने पर उलट हुआ करता था. घर से निकलने और क्लास में जाने से पहले खुद पर पूरा-पूरा ध्यान देते थे. आखिर यहाँ वो सब भी साथ पढ़ा करती थी.

कॉलेज-क्लास में आकर बुद्धू हो गए है, स्कूल में ज्यादा समझदार थे. रोज़ लड़ते और बात करने लग जाते. अब कॉलेज-क्लास में एक बार लड़ते है फिर कभी बात नहीं करते है. कॉलेज में कपड़ो की तरह हम भी अलग-अलग हो गए है. स्कूल में हम और नजरिये सब यूनिफ़ॉर्म में थे. स्कूल-क्लास में सिर्फ दोस्त साथ बैठते थे. कॉलेज में प्रेमी-प्रेमिका बनकर साथ बैठते है. स्कूल में टीचर की पैरेंट्स की तरह सुना करते थे. अब तो टीचर भी पैरेंट्स की तरह हो गए है, अब उनकी कैसे सुन सकते है भला!

कॉलेज-क्लास में आकर टेलीफोन, मोबाइल, ऑरकुट, फेसबुक, ट्विटर और न जाने क्या-क्या.. सब कुछ है. स्कूल के समय ये सब न था. इसके बावजूद दोस्तों में आपसी कनेक्शन था. कभी भी कहीं भी बात हो जाती थी. क्लास में मैसेज पास करते थे. इन्टरनेट और वाई-फाई के बिना क्लास-मेट्स में सोसल-नेटवर्किंग थी. अब सब कुछ हो कर भी 'वो सब' नहीं है. दोनों क्लास में समानता सिर्फ एक ही है- दोनों में जाते रहना अच्छा नही लगता और बाद में न जाने पर बुरा.