Wednesday, July 6, 2011

दुपहिया, तीन पीढ़ी और चौपहिया

  हिया निरंतर घूमता है उसे थामना अपने हाथ में कहां? अपन तो समय के इस गोल पहिये को अपनी गोल आखों से देख ही सकते है। समय था जब मेरे पांचवी क्लास में पढ़ने के दौरान मेरे मुहल्ले की गलियों में सिर्फ मेरी ही सायकल की घंटी ट्रिन-ट्रिनाती थी।

स्कूल के मैदान में अध्यापकों की कुछेक साइकल की बगल में मेरी सायकल ठाठ मारे खड़ी होती थी। पूरे स्कूल में बमुश्किल दर्जनभर सायकल। उस समय सायकल के साथ मेरा वो समय किसी लग्जरी से कमतर न था। एक और सायकल थी, जो गली में मोरनी की तरह लहजे में चलती आती थी।

वो थी मेरे पापा की हरे रंग की सायकल। जिसे मैं अपनी स्मृति की शुरुआती परत से जानता हूं। जैसे मैं अपनी पहली ‘पसंद’ को याद कर पाता हूं।

समय का ये पहिया सरपट घूमता गया। दसवीं कक्षा पहुंचते-पहुंचते मेरी दूसरी नई आ गई। बसमय अतह एडवांस। स्पीडोमीटर, टर्न-इंडीगेटर लाइट, हॉर्न और रियर बास्केट। ये भी उसी कंपनी की थी और नाम था ‘हीरो सायरन’। इसे लेकर स्कूल के कम लेकिन ट्यूशन की खूब ‘दौड़’ लगाई है। स्कूल छूटा पर सायकल से लगाव नहीं।

ग्रेजुएशन में नई स्पोर्ट सायकल खरीदी। पर अब अपन इंदौर शहर में पढ़ने आ चुके थे। शहर, जहां सायकल ‘स्टेट्स सिंबल’ नहीं होता है। कुछेक दिन चलाई फिर बेच दी। सायकल की जगह अब बाइक ने ले ली। इधर पापा की सायकल जिसे मैं अपने बचपन से जानता हूं, उसकी पूछ कम होने लगी।

पापा की यह सायकल पहले बड़े नाजों के साथ रखी जाती थी। वयोवृद्ध हो चुकी यह सायकल करीबन मेरी ही उम्र की है। जबकि मैंने अपनी जिंदगी का तेईसवां वसंत भी पूरा नहीं किया है। पापा ने अपनी इसी सायकल के साथ अपनी नौकरी का सारा दौर काटा है। समय का पहिया पापा की नौकरी के आखिरी महीनों की ओर घूमने को है। इस सायकल की मदद के बिना दिन-रात की सिफ्ट्स में, सम-विषम मौसम के बीच पापा की नौकरी उतनी आसान न होती। आज इस सायकल और नौकरी के भरोसे, पढ़-लिखकर इस मुकां तक पहुंचने के लिए मैं इस सायकल के प्रति कृतज्ञ हूं। अब पापा ने सायकल चलाने से कन्नी काटना शुरु कर दिया है। अब पहिया, कलाई घुमाने से जो घूमने लगा।

अब सायकल की ट्रिन-ट्रिन से नहीं बल्कि बाइक की तेज पीं-पीं से पापा के नौकरी से लौट आने की आहट होती है। जिस तरह जैसे डाकिया की सायकल की ट्रिन-ट्रिन को ई-मेल खा गया, बाइक ने भी यही किया।

हाल के दिनों में, पांच साल से भी छोटे मेरे भांजी-भांजा को भी सायकल बतौर उपहार मिली है। मैंने अपनी पहली नियमित पूर्णकालिक नौकरी की पहली तनख्वाह से उन्हें यह जन्मदिन का उपहार दिया। लेकिन मुझे यह आशंका हे कि सायकल से उनकी ये दोस्ती लंबी न चलेगी।

क्योंकि अब अनके पापा ने दुपहिया के बाद चौपहिया खरीद ली है। ऐसे में सायकल को कार कहीं पीछे छोड़ देगी। इससे मेरी ये पुरानी दुपहिया दोस्त ‘सायकल’ समय के पहिए का निशान बनकर रह जाएगी।

समय का पहिया बलवान होता है। दुपहिया को तीन पीढ़ियों में चौपहिया तक घुमा चुका है। लेकिन मैं जानता हूं ये चौपहिया मेरी सायकल से कहीं ज्यादा... ठाठ और आराम देगी। फिर भी जोश और उत्साह में सायकल के पैडल को भिंगरी बनाकर, पहियों को मुहल्लों की तंग गलियों, कूचों में सरपट दौड़ना, हमेशा मेरे जीवन के सुहाने यादगार लम्हें रहेंगे।

बहरहाल अपनी नौकरी के लिए किराए पर ली बाइक का इस्तेमाल करता हूं। लेकिन पापा के नौकरी पर जाने और लौटने पर सायकल पर मेरी पारी का वो आनंद, मेरे लिए पापा की उस सायकल की तरह आज भी जवां है। समय का पहिया घूमता रहेगा, और शायद सायकल के उस आनंद का अहसास मैं बतौर पिता अपने बच्चों को न दे पाउं!

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