Friday, August 13, 2010

किताबें 'परदे के पीछे'

जयप्रकाश चौकसे
अमित पाठे पवार.
       र्मी और उमस  भरा मुंबई का दिन था. हम देवी अहिल्या विश्वविधालय के पत्रकारिता एवं जनसंचार अध्यनशाला के स्टुडेंट यहाँ पहुंचे हुए थे. हम  हम सभी बी. ए. (ऑनर) जनसंचार फ़ाइनल ईयर के स्टुडेंट एजूकेशनल ट्रिप पर यहाँ पहुचे थे. हम यहाँ मुंबई और पुणे के विभिन्न मीडिया व शिक्षा संस्थानों और फिल्म-स्टूडियो के भ्रमण हेतु यहाँ गए थे. यहाँ की एजूकेशनल विजिट के लिए सीनियर फिल्म पत्रकार और कॉलमिस्ट जयप्रकाश चौकसे का विशेष सहयोग रहा. श्री चौकसे हमारी सीनियर फैकल्टी श्रीराम ताम्रकार के पुराने घनिष्ट मित्र है. चौकसे जी ने मुंबई में अपने संपर्कों से हमें सहयोग किया. मुंबई से वापसी के समय हमने उनसे मिलकर धन्यवाद कहकर आभार प्रदर्शन करना चाहा. यह अप्रत्याशित था, इसकी सलाह हमारे साथ गये फैकल्टी श्री आनंद पहारिया ने दी. हमने फ़ौरन सर की बात मान ली. सर ने तुरंत चौकसे जी के मोबाइल की घंटी घनघना दी.

चौकसे जी ने फ़ोन पर कहा 'अरे इसकी क्या जरूरत है, मैंने कोई बड़ा काम थोड़े किया है.' हमारे आनंद सर ने उनसे कहा की बच्चें आपसे मिलने और मार्गदर्शन के भी इच्छुक है. चौकसे जी ने कहा 'हाँ तो जरूर मिलिए पर मैं अभी अपने घर पर नही हूँ. अभी सलमान  के फ्लैट पर हूँ, आप यहीं आ जाइये.' हुम पुणे के लिए निकल रहे थे. हमने बस घुमाई और सलमान खान के फ्लैट को मोड़ दी.

हम पूरी क्लास के 34 क्लासमेट्स और दो फैकल्टी एक साथ थे. चौकसे जी सलमान के फर्स्ट फ्लोर स्थित फ्लैट से नीचे आये. उन्होंने कहा चलो वहां समुद्र के किनारे बातें करते है. उनसे काफी बातें हुई. वे काफी बोल्ड व्यक्ति है. खड़ी बातें करते है. मुम्बईया में बोले तो बिंदास!

उन्होंने निजी और प्रोफेशन दे जुड़ी ढेरों बातें की. वे बोले 'अच्छा लिखने के लिए खूब पढ़ना बहुत जरूरी है. मै आज भी रोज दिन में छः से आठ घंटे पढता हूँ. शायद इसलिए मेरी दोनों आँखों का ऑपरेशन हो चुका है. मेरी आँखों में 18 साल के जवान का लेंस है.' हँसते हुए बोले- 'तो लड़कियों मुझसे बचकर रहना. देखो बच्चों लिखना तो मेरा शौक है, मैं पैसों के लिए थोड़े लिखता हूँ. लिखने से मुझे जितने पैसे मिलते है उससे ज्यादा तो मै अपने ड्रायवर को देता हूँ.' उन्होंने अपने हाल ही के कुछ कॉलम की चर्चा भी की. साथ ही हमारी फैकल्टी श्रीराम ताम्रकार के बारे में भी बातें की.

चौकसे जी ने बताया बताया मै भी मूलतः इन्दौरी हूँ. वहां मैंने अपने घर में एक काफी बड़ी निजी लाइब्रेरी बना रखी है. अब जब इंदौर आऊंगा तो लाइब्रेरी पर और ज्यादा ध्यान दूंगा. तुम्हारे विश्वविधालय जरूर आऊंगा. ' हम में से एक कोमल सी आवाज आई- 'सर सलमान.....'. चौकसे जी ने कहा 'मुझे लग ही रहा था कोई लड़की अब ये कहेगी.' 'आज सलमान की पेशी है, वो कोर्ट गया है. वो होता तो बोल देता पर वो तो कल ही आएगा. मै तो उसके अब्बाजान से मिलने आया था.'
मैंने पूछा सर आपके कॉलम में आपकी फोटो अचानक क्यों बदल दी गई? पहले बहुत पुरानी फोटो थी अब अचानक बदल दी गई है. हम तो पुरानी फोटो के अनुसार ही आपको इमेजिन करते थे. वे हँसे और बोले 'ये अखबार वाले न जाने कहाँ-कहाँ से फोटो ले लेते है. मै तो न खिंचवाता हूँ, न  ही देता हूँ. उनको कहीं से फोटो मिल गई होगी तो नई फोटो देने लगे.'

जयप्रकाश चौकसे जी डाउन-टू-अर्थ और बोल्ड व्यक्तित्व के है. उन्होंने हमे एक सबसे बड़ा गुरुमंत्र दिया की "अच्छा लिखने के लिए खूब पढ़ना जरूरी है." इससे मुझे ये यह तो पता चल गया की उस 'परदे के पीछे' किताबें है. गोयाकि गर्मी तो थी पर समुद्र के किनारे की लहरों की ठंडी हवा के साथ  चौकसे जी की बातें अद्धभुत और यादगार थी. परदे के पीछे के लेखक को जानने का मौका मिला.

चौकसे जी से चर्चा में काफी समय गुजर गया पता ही नही चला. वे बोले- 'अरे बच्चों तुम्हे पुणे पहुँचने में रात हो जाएगी, बस में बैठों. तुम्हे  फ्यूचर के लिए ऑल द बेस्ट, फिर मिलेंगे....





-अमित पाठे पवार, आईआईएमसी (amitpathe@gmail.com)
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Wednesday, August 11, 2010

महानगर Metro-city की मरीचिका

  स्नातक के बाद मैं दिल्ली अपनी पढ़ाई के लिए आया. आते से फ़ौरन अपना तो कोई ठिकाना नहीं था. दोस्त से फ़ोन पर बात हुई तो उसने अपने घर रुकने के लिए बुला लिया. तीन- चार दिन वहां बिताने के साथ ही अपने रहने के ठिकाने की तलाश जारी थी. तलाश के दौरान कई किराये के कमरें देखने के बाद एक कमरा ज़चा. अभी उसमें पहले से कोई रह रहा था. दोस्त के यहाँ समय गुजरना अब खुद को सम्मानजनक नहीं लग रहा था. मैंने जिस रूम में वह लड़का रह रहा था उसका अडवांस देकर उसे बुक कर लिया.

   उस लड़के के महीने की गिनती दो दिन बाद ख़त्म हो रही थी. बहरहाल मुझे अपने दोस्त को इस हेल्प के लिए धन्यवाद कह कर, अपने रहने के ठिकाने जाना था. मैंने उस बुक किए रूम में रह रहे लड़के से अपनी बात की. मैंने कहा क्या मैं आज से ही यहाँ रह सकता हूँ? वह सहयोगात्मक रवैये से पेश आया और उसके बचे हुए दो दिन अपने साथ रहने को कह दिया. मैं दो दिन उसके साथ रहा. अब उसके महीने की गिनती ख़त्म हो चुकी थी, पर अगले दो दिन तक वो वहां से नहीं  गया.

  तीन-चार दिन उसके साथ रहने क बाद उसके बारे में थोड़ी बहुत बातें सामने आने लगी. कुछ तो वो बताता और बाकी मैं स्वयं अपनी उधेड़-बुन से समझ जाता. मैं जो अब तक उसके बारे में समझ पाया था, वो ये कि अनुज यू.पी. के एक गाँव से है. उसका उसके घर से रिश्ता अब लगभग न के बराबर है. वो हाईस्कूल तक पढ़ा निम्न-मध्यवर्गीय किसान प्रष्टभूमि से था. वो दिल्ली पांच साल पहले 'पैसा' कमाने आया था. पर वो भी उसी 'भीड़' का अभिन्न हिस्सा था जो मेट्रो-सिटी दिल्ली 'पैसा' कमाने आते है. यह भीड़ मेट्रो कि तेज़ रफ़्तार कि बराबरी करने का सपना सच नहीं कर पाती. अनुज भी ये सपना पूरा नहीं कर पा रहा था, तो उसने स्वयं को गैरकानूनी कामों की ओर मोड़ लिया. अब वह अवैध तस्करी और खरीद-फरोख्त में लिप्त हो गया.

  मैंने कमरे में लड़की के कपड़े और चीजें देखी. अनुज से पूछने पर उसने बताया एक लड़की जो मूलतः छत्तिसगढ की है, यहाँ मेरे साथ रहती थी. वो कुछ दिन पहले यहाँ से चली गई है. मुझे कमरे में मंगलसूत्र और मांग के सिंदूर कि डिब्बी दिखाई दी. मैंने अनायास ही पूछ लिया- 'ये सब किसका है?' ये कहने के बाद मुझे लगा कि मैंने कुछ ज्यादा ही जासूसी अंदाज दिखा दिया है. पर अनुज ने फ़ौरन ही उसका जवाब देने लगा- 'वो लड़की यहाँ मेरी पत्नी बनकर रहती थी. मकान मालिक को दिखाने के लिए वो सुहागन दिखना पड़ता था. हमने मकान मालिक से ये कहकर कमरा किराये पर लिया था कि हम पति-पत्नी है. आगे वो ही सब कुछ बताता चला गया. मैं समझ गया यह लड़की भी अनुज कि तरह ही मेट्रो-सिटी में आई 'भीड़' का हिस्सा थी. वो 'पैसा' कमाने के लिए अनुज की तरह ही गैरकानूनी धंधो में लिप्त हो गई. असल में दोनों की मुलाकात उनके अवैध धंधे करने के दौरान ही हुई थी. इसमें लड़की अनुज की सीनियर थी और ज्यादा कम भी लेती थी. दोनों को रहने के लिए कमरे की जरूरत थी और अनुज को लड़की के पैसे की. दोनों साथ रहने लगे. इससे उनमे स्वाभाविक ही रिश्ते कायम हो गए. इसे हम सह-सम्बन्ध (लिव-इन-रिलेसन ) कह सकते है. कुछ हफ्तों के संबंधो के बाद उन दोनों में जमी नहीं और लड़की उस कमरे को छोडकर चली गई. अनुज भी उस कमरे में सामान रखकर दिल्ली छोड़ एनसीआर में कहीं चला गया. उसने रहने का ठिकाना मिलने पर अपना सामान ले जाने की बात मुझसे कही और चला गया.

  अगले ही दिन वह लड़की कमरे पर आई. उसने मुझसे अनुज के बारे में पूछा. मैंने जाहिर है उसकी कोई खबर न होने की बात कही. वो बोली 'क्या मै अपना सामान ले जाना चाहती हूँ. 'मैंने कहा मेरी सहमति देने न देने का कोई सवाल ही नहीं उठता. उसने अचानक ही कहा 'क्या आज रात मैं यहाँ रह सकती हूँ?' मुझे डेरी-मिल्क का टीवी विज्ञापन याद आ गया.... मैंने वो विज्ञापन भूलकर सोचा, अरे! ये तो मुझसे सच में कह रही है. मैं अवाक् सा हो गया. एक अनजान लड़की अगर बैग उठाए आपके दरवाजे के सामने आ खड़ी हो और ये कहे, तो थोड़ी देर के लिए शायद कौन अवाक् न हो जाये.

  मैंने उससे कहा 'क्या.. क्या कहा आपने?' वो बोली 'मैं मुश्किल में हूँ और मेरे रात गुजरने के लिए कोई ठिकाना है न पैसे. प्लीस हेल्प मी!' मैंने कहा आप अपना सामान ले लीजिये. वो कमरे मी आई और अपना सामान बैग में रखने लगी. उसने घबराते हिचकाते कहा 'मै यहाँ कही से भागकर आई हूँ.' मैं उसके बारे में कुछ-कुछ अनुज से पहले ही जान चुका था. आगे वो बोली- 'मै अपने गिरोह की कैद से छूटकर आई हूँ. मैंने तीन दिनों से न ठीक से कुछ खाया है, न बाहर का सूरज देख पी हूँ. मेरे पास रहने के कोई ठिकाना नहीं है.' मैंने स्वयं को किसी जाल में फंसाए या ठगे जाने की सम्भावना को ध्यान में रखते हुए, कोई खास प्रतिक्रिया नही दी. पर मैं चाह रहा था की उस लड़की की मदद कर दूँ. मेरा दिल्ली में दूसरा सप्ताह ही था और मैं किसी मामले में उलझना नहीं कहता था. लड़की ने बताना शुरू किया कि किस तरह वो खिड़की से कूद कर भाग आई. उसने कहा यह सारा सामान मेरा ही है. मैंने उससे पूछा वो इस अवैध कारोबार में कैसे लिप्त हो गई? उसने बताया मेरे माता-पिता नहीं है, मैं उनकी एक इकलौती संतान हूँ. मैं पैसा कमाने के लिए दिल्ली आई. सीधे तरीके से ज्यादा नहीं कमा पाई और अवैध कारोबार में लिप्त हो गई. अब गिरोह से बचने के लिए भागती फिर रही हूँ. मेरे पास पैसे भी नहीं है. मैंने उससे ये काम छोड़ने को कहा तो वो बोली सिक्कों कि तस्करी में पैसा बहुत है, लाखों...

  मै बैठा अख़बार पढ़ने में मशगूल था. वो बैग में अपने कपड़े और सामान रख रही थी. अचानक उसने अपना मनी-पर्स निकलते हुए कहा 'पैसे भी नहीं है मै कहाँ जाऊ.' जो कपड़े वो बैग में रख चुकी थी उसे बाहर निकालकर उनके बारे में फिजूल बातें करने लगी. वो अभी भी घबराई हुई थी. वो कांपती आवाज़ में अपने टॉप्स कि बातें करने लगी, वो बातें जो उसे एक लड़के से शायद नहीं करनी चाहिये. कपड़ों कि बात करते हुए बोली 'आप समझ रहे है न मैं क्या कहना चाहती हूँ, मेरे पास पैसे नहीं है. आप ये दरवाजा बंद कर लीजिये, मुझे पैसों कि जरूरत है.' मै हतप्रद था. मैंने छिटक के सोचा और कहा 'क्या कहा आपने? मैं आपको दरवाजे के बाहर छोड़ दूँ!' वो बोली नहीं. अरे आप ये क्यों करेंगे. वो पुनः कपड़े की बातें करने लगी अब वो यौनाकर्षण युक्त भावभंगिमा बनाने लगी. मैंने उसे दूसरी बातों से टाला और कुछ देर बाद मेरा रूमपार्टनर आ गया. उसके आने के बाद उसका व्यवहार बदल गया. अब हम दोनों ने उससे कह दिया कि आप सामन ले लीजिये. जवाब में उसने कहा मेरा अभी रहने का कोई ठिकाना नहीं है, आधा सामान में बाद में ले जाउंगी.

  उसके जाने के बाद मैंने सोचा हमारे देश में कितने लोग दिल्ली जैसे मेट्रो शहर में 'पैसा' कमाने के लिए जाते है. वे 'मेट्रो' कि रफ़्तार के साथ नही दौड़ पाते न 'पैसा' कमा पाते है. ऐसे में वो शहरी-गरीब बनकर रह जाते है. जल्दी और ज्यादा पैसे कमाने के लिए गैरकानूनी और आपराधिक कार्यों में लिप्त हो जाते है. अपराध की दुनिया का भंवर उन्हें गर्त में खींच लेता है, फिर चाहने पर भी वो इससे बाहर नहीं आ पाते. दूसरी तरफ इससे शहरों में आबादी का दबाव, अपराध और शहरी-गरीबी भी बढ़ती है.

  अनुज और इस लड़की के तरह के लोगों को गावों से शहरों की ओर पालयन करने से पूर्व सोचना होगा. मेट्रो शहर में जाने के उनके मायने क्या है? वे शहरी-गरीबी का हिस्सा बनना कहते है या अपराध की गर्त का. दोनों ही स्तिथियों में उनकी जिंदगी गाँव की जिंदगी से तो कहीं बेहतर ही होती है. गाँव के 'झरने' से अपनी 'प्यास' बुझाने के बजाये वो महानगरों की मिरिचिका की ओर अंधी दौड़ लगाने लगते है, और अंत में भ्रम दूर हो जाता है.

-AMIT PATHE
IIMC Delhi (HINDI JOURNALISM)  Mob. 09717563080
 

Monday, August 9, 2010

मेरी स्कूली कॉलेज-क्लास

फीचर


स्कूल क्लास से कॉलेज-क्लास में कितना अंतर होता है. इनमे एक समानता होती है, यहाँ जाने पर अच्छा नही लगता और न जाने पर बुरा.

स्कूल-क्लास से कॉलेज-क्लास में आकर बैठने पर कितना कुछ बदल जाता है. ये दोनों ही समय यादगार होते है, पर स्कूल क्लास के लम्हों की बात ही कुछ और हुआ करती थी. मुझे याद है जब हमने स्कूल को वास्तव में अपना 'मिनी-कॉलेज' स्वयं ही बना लिया था. कॉलेज के सारे मज़े तो स्कूल क्लास में ही ले लिए थे. इसलिए अब कॉलेज में कुछ अलग सा नही लगता था. कॉलेज-क्लास पर मानो स्कूल-क्लास ने अतिक्रमण कर लिया है.

यहाँ कॉलेज-क्लास में यूनिफ़ॉर्म में नहीं है, पर स्कूल के विपरीत अब रोज़ बैग लेकर जाते है. क्लास में अनुशासन से बैठते है, वरना हमारे 'मिनी-कॉलेज' में तो.... क्या बताए. टीचर आगे के दरवाजे से अन्दर आते थे, और हम पीछे के दरवाजे से बाहर जाते थे. अब तो फैकल्टी के आने का इंतजार करते रहते है. अब एक दिन गैरहाजिर होना अखरता है, पर स्कूल में ख़ुशी होती थी.

स्कूल के इन्टरनल (त्रिमासिक और अर्ध- वार्षिक परीक्षा) में पास होने कोई इच्छा नहीं रहती थी. अब कॉलेज के एग्जाम के पहले की रात नोट्स छानते बीतती है. अफ़सोस! मेरे स्कूल में लड़कियां नहीं थी. इसलिए घर से निकलते और क्लास में जाने से पहले खुद पर ध्यान देने की कोई जरूरत नहीं होती थी. टयूसन-क्लास जाने पर उलट हुआ करता था. घर से निकलने और क्लास में जाने से पहले खुद पर पूरा-पूरा ध्यान देते थे. आखिर यहाँ वो सब भी साथ पढ़ा करती थी.

कॉलेज-क्लास में आकर बुद्धू हो गए है, स्कूल में ज्यादा समझदार थे. रोज़ लड़ते और बात करने लग जाते. अब कॉलेज-क्लास में एक बार लड़ते है फिर कभी बात नहीं करते है. कॉलेज में कपड़ो की तरह हम भी अलग-अलग हो गए है. स्कूल में हम और नजरिये सब यूनिफ़ॉर्म में थे. स्कूल-क्लास में सिर्फ दोस्त साथ बैठते थे. कॉलेज में प्रेमी-प्रेमिका बनकर साथ बैठते है. स्कूल में टीचर की पैरेंट्स की तरह सुना करते थे. अब तो टीचर भी पैरेंट्स की तरह हो गए है, अब उनकी कैसे सुन सकते है भला!

कॉलेज-क्लास में आकर टेलीफोन, मोबाइल, ऑरकुट, फेसबुक, ट्विटर और न जाने क्या-क्या.. सब कुछ है. स्कूल के समय ये सब न था. इसके बावजूद दोस्तों में आपसी कनेक्शन था. कभी भी कहीं भी बात हो जाती थी. क्लास में मैसेज पास करते थे. इन्टरनेट और वाई-फाई के बिना क्लास-मेट्स में सोसल-नेटवर्किंग थी. अब सब कुछ हो कर भी 'वो सब' नहीं है. दोनों क्लास में समानता सिर्फ एक ही है- दोनों में जाते रहना अच्छा नही लगता और बाद में न जाने पर बुरा.