Sunday, November 6, 2011

IIMC HJ 10-11 LogOut भारतीय जनसंचार संस्थान नई दिल्ली के हिंदी पत्रकारिता का 'लॉगआउट' के वीडियो

भारतीय जनसंचार संस्थान नई दिल्ली के हिंदी पत्रकारिता का 'लॉगआउट' के ये सारे वीडियो मैंने अपने मोबाइल के कैमरे से कैद किये थे। आशा है ये हमलोग की यादों को ताजा बनाए रखेंगे। 

फैकल्टीज की बात


रोहित जोशी का गीत 1


रोहित जोशी का गीत 2



हिमांशु सिंह की कविता- 'अब याद तुम्हारी आएगी'



प्रणव का गीत- 'यारों दोस्ती भी..'



राहुल दुबे का गीत- 'हंगामा है क्यों बरपा थोड़ी सी जो पी ली है..'



जावेद की दुकान पर प्रधान सर के साथ एचजे की टी पार्टी 1



जावेद की दुकान पर प्रधान सर के साथ एचजे की टी पार्टी 2

जावेद की दुकान पर प्रधान सर के साथ एचजे की टी पार्टी 3



शहर में दीपावली न मना सकूंगा


 शहर में दीपावली न मना सकूंगा शहर को जाते, मां के पैर छूते हुए उन्हें कहता कि अच्छे से रहना और अपना ख्याल रखना। जबकि बतौर जवान बेटा इन बातों की जिम्मेदारी मेरी ही है। अक्सर करियर की राहें हमें अपने घर-परिवार से दूर ले जाती है। इन त्यौहार के मौसम में शहर में रहते हुए दूर अपने घर-परिवार में मनाए त्यौहारों की याद मन में बहुत कौंधती है।
दीपावली हमारे लिए महापर्व है। आज जब मैं शहर में हूं तो यहां भी दीपावली के लिए घर की सफाई हो रही है। त्यौहार का माहौल बनना शुरू हो जाता है। महानगरों से इतर छोटे कस्बों में रहने वाले मध्यमवर्गीय परिवार दीपावली के लिए अपने कच्चे-पक्के से घर की सफाई कर उसकी खूबसूरती बढ़ाने में जुट जाते हैं। ऐसे परिवारों में घर की सफाई, पुताई, सजावट से लेकर पकवान बनाने तक के सारे काम परिवार के सदस्य मिलकर करते हैं। त्यौहार की तैयारियों की पड़ोसियों से चर्चा होती है। उनमें तैयारियों को पूरा करने को लेकर एक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा भी होती है। ये सब होने के बाद त्यौहार
पूरे मोहल्ले में मिलकर मनाया जाता है। शहर में बात ऐसी नहीं नहीं होती है। यहां आप पड़ोसी को ठीक से जानते भी नहीं है। अपने घर में ही त्यौहार मना लेते है।
मैं शहर के एक मकान में किराए से रह रहा हूं। महीनों हुए यहां रहते लेकिन मैं नीचे की मंजिल पर रहने वाले मकान मालिक का नाम तक नहीं जानता हूं। उन्होंने भी कभी मुझसे मेरा नाम तक नहीं पूछा। आज मैंने मकान मालिक के खेलते बच्चे से उसका नाम पूछ ही लिया। उसके बाद महसूस हुआ कि मैं यहां शहर में दीपावली न मना सकूंगा। बस, जल्द ही घर जाना हो जाए और मम्मी-पापा का दीपावली की तैयारियों में हाथ बंटाऊं। ऐसे शहर में मानवीय रिश्तों की शून्यता के बीच दीपावली नहीं मना सकता। अपने कस्बे लौटकर घर पर मिट्टी के दीए में घी से दीप जलाकर दीपावली मनाउंगा। यहां शहर में मोमबत्ती जलाकर दीपावली क्या मनाना।

हलवा-केक याद आता है


(*मेरे जन्मदिवस पर विशेष!)
 मेरा जन्मदिन कई दफा दीपावली के दौरान आता है। हमारे मध्यवर्गीय परिवार में सारे सदस्य मिलकर घर की सफाई-पुताई और बाकी तैयारियां करते हैं। दीपावली से दो-तीन दिन पहले हम सब घर की पुताई में जुटे हुए थे। उस दिन मेरा जन्मदिन था और किसी को याद नहीं था। पिछले दफा भी दीपावली की तैयारियों में सभी मेरा जन्मदिन भूल गए थे। रात हो गई और किसी को मेरा जन्मदिन याद नहीं आया। मैं भी पुताई के काम में लगा रहा।
रात करीब साढ़े दस बजे क्या देखता हूं कि मेरी बड़ी बहन ने मुझे दूसरे कमरे में पुकारा। मैं पुताई का काम रोक उस कमरे में गया,तो देखता हूं कि आटे का गरम-गरम हलवे को एक प्लेट में रखकर केक का आकार दे दिया गया है। इसके बीच में एक बड़ी और मोटी से मोमबत्ती जल रही थी।
दीदी और मम्मी ने कहा कि,अरे तेरा जन्मदिन ही ऐसे समय में आता है कि हम दीपावली की तैयारियों में जन्मदिन भूल ही जाते हैं। अभी याद आया तो हमने तेरे लिए ऐसा केक बनाया। मेरा मन भर आया और आंखें नम हो गई। जुबां से थोड़े देर तक शब्द ही नहीं निकले। खुशी के आंशुओं से डबाडब आखें मैंने कहा कि पिछली बार भी आप लोग मेरा जन्मदिन भूल गए थे।
मैंने बड़ी खुशी से ‘हलवा-केक’ कांटा। उस दिन को आठ साल हो चुके हैं। मेरा आठ जन्मदिन भई आए लेकिन कभी केक कांटना नहीं हुआ। इस 14 अक्तूबर मेरा जन्म आया/आ रहा है और मुझे मम्मी और दीदी का बनाया केक बहुत याद आया/आएगा। ‘हलवा-केक’ काटे 9 साल पूरे हो जाऐंगे/गए। आज भी जब वो जन्मदिन याद आता है तो भावुक हो जाता हूं। जाने अब कब दीपावली में घर की पुताई करते हुए ‘हलवा-केक’ काटना नसीब होगा।


Wednesday, August 31, 2011

चूहा कपड़े न कुतरता..


 ▐┌ आज अपनी मकानमालकिन के साथ मंदिर गया। यह उनके घर से नजदीक ही है लेकिन वे लोग यहां एक साल से नहीं आए थे। इतने दिनों बाद मदिर आने का कारण वह चूहे के कपड़े कुतर देना बताया।


हमारे मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारे-चर्च जाने और त्यौहार मनाने के  पीछे जितनी छोटे कारण होते है। उससे कहीं छोटे और टुच्चे कारण ऐसा न करने के होते।


अगर वह चूहा कपड़े न कुतरता तो आज गणेशजी को मंदिर में इस भक्त के दर्शन न होते!

हमें अपनी ईद ..


▐┌कुछ दिनों पहले घर था। भांजे-भांजी के लिए ईद वाली सेवईयां लाया। उन्होंने बड़े चाव से खायी। उन नवकल्पितों को नहीं पता कि धर्म क्या और उसके अलग-अलग खानपान क्या।

मुझे भी बचपन में यह नहीं पता था और मैं भी चाव से सेवईयां खाता था। बड़े होने के साथ हमें दुनियादार बनाया दिया गया।

अब हम खान-पान में भी धर्म आदि का गुणा-भाग करने लगते है। कितना अच्छा होता है जब हम एक-दूसरे के धर्म, जाति का सांस्कृतिक आदान-प्रदान करते हैं। मैं दोनों ईद मनाता हूं और इन्हें मनाने वाले बंधुओं के साथ साझा भी करता हूं।


हमें अपनी ईद मुबारक

Wednesday, July 6, 2011

दुपहिया, तीन पीढ़ी और चौपहिया

  हिया निरंतर घूमता है उसे थामना अपने हाथ में कहां? अपन तो समय के इस गोल पहिये को अपनी गोल आखों से देख ही सकते है। समय था जब मेरे पांचवी क्लास में पढ़ने के दौरान मेरे मुहल्ले की गलियों में सिर्फ मेरी ही सायकल की घंटी ट्रिन-ट्रिनाती थी।

स्कूल के मैदान में अध्यापकों की कुछेक साइकल की बगल में मेरी सायकल ठाठ मारे खड़ी होती थी। पूरे स्कूल में बमुश्किल दर्जनभर सायकल। उस समय सायकल के साथ मेरा वो समय किसी लग्जरी से कमतर न था। एक और सायकल थी, जो गली में मोरनी की तरह लहजे में चलती आती थी।

वो थी मेरे पापा की हरे रंग की सायकल। जिसे मैं अपनी स्मृति की शुरुआती परत से जानता हूं। जैसे मैं अपनी पहली ‘पसंद’ को याद कर पाता हूं।

समय का ये पहिया सरपट घूमता गया। दसवीं कक्षा पहुंचते-पहुंचते मेरी दूसरी नई आ गई। बसमय अतह एडवांस। स्पीडोमीटर, टर्न-इंडीगेटर लाइट, हॉर्न और रियर बास्केट। ये भी उसी कंपनी की थी और नाम था ‘हीरो सायरन’। इसे लेकर स्कूल के कम लेकिन ट्यूशन की खूब ‘दौड़’ लगाई है। स्कूल छूटा पर सायकल से लगाव नहीं।

ग्रेजुएशन में नई स्पोर्ट सायकल खरीदी। पर अब अपन इंदौर शहर में पढ़ने आ चुके थे। शहर, जहां सायकल ‘स्टेट्स सिंबल’ नहीं होता है। कुछेक दिन चलाई फिर बेच दी। सायकल की जगह अब बाइक ने ले ली। इधर पापा की सायकल जिसे मैं अपने बचपन से जानता हूं, उसकी पूछ कम होने लगी।

पापा की यह सायकल पहले बड़े नाजों के साथ रखी जाती थी। वयोवृद्ध हो चुकी यह सायकल करीबन मेरी ही उम्र की है। जबकि मैंने अपनी जिंदगी का तेईसवां वसंत भी पूरा नहीं किया है। पापा ने अपनी इसी सायकल के साथ अपनी नौकरी का सारा दौर काटा है। समय का पहिया पापा की नौकरी के आखिरी महीनों की ओर घूमने को है। इस सायकल की मदद के बिना दिन-रात की सिफ्ट्स में, सम-विषम मौसम के बीच पापा की नौकरी उतनी आसान न होती। आज इस सायकल और नौकरी के भरोसे, पढ़-लिखकर इस मुकां तक पहुंचने के लिए मैं इस सायकल के प्रति कृतज्ञ हूं। अब पापा ने सायकल चलाने से कन्नी काटना शुरु कर दिया है। अब पहिया, कलाई घुमाने से जो घूमने लगा।

अब सायकल की ट्रिन-ट्रिन से नहीं बल्कि बाइक की तेज पीं-पीं से पापा के नौकरी से लौट आने की आहट होती है। जिस तरह जैसे डाकिया की सायकल की ट्रिन-ट्रिन को ई-मेल खा गया, बाइक ने भी यही किया।

हाल के दिनों में, पांच साल से भी छोटे मेरे भांजी-भांजा को भी सायकल बतौर उपहार मिली है। मैंने अपनी पहली नियमित पूर्णकालिक नौकरी की पहली तनख्वाह से उन्हें यह जन्मदिन का उपहार दिया। लेकिन मुझे यह आशंका हे कि सायकल से उनकी ये दोस्ती लंबी न चलेगी।

क्योंकि अब अनके पापा ने दुपहिया के बाद चौपहिया खरीद ली है। ऐसे में सायकल को कार कहीं पीछे छोड़ देगी। इससे मेरी ये पुरानी दुपहिया दोस्त ‘सायकल’ समय के पहिए का निशान बनकर रह जाएगी।

समय का पहिया बलवान होता है। दुपहिया को तीन पीढ़ियों में चौपहिया तक घुमा चुका है। लेकिन मैं जानता हूं ये चौपहिया मेरी सायकल से कहीं ज्यादा... ठाठ और आराम देगी। फिर भी जोश और उत्साह में सायकल के पैडल को भिंगरी बनाकर, पहियों को मुहल्लों की तंग गलियों, कूचों में सरपट दौड़ना, हमेशा मेरे जीवन के सुहाने यादगार लम्हें रहेंगे।

बहरहाल अपनी नौकरी के लिए किराए पर ली बाइक का इस्तेमाल करता हूं। लेकिन पापा के नौकरी पर जाने और लौटने पर सायकल पर मेरी पारी का वो आनंद, मेरे लिए पापा की उस सायकल की तरह आज भी जवां है। समय का पहिया घूमता रहेगा, और शायद सायकल के उस आनंद का अहसास मैं बतौर पिता अपने बच्चों को न दे पाउं!

Saturday, July 2, 2011

बहरहाल, आल इज वेल!

आज 'राजस्थान पत्रिका' जयपुर संस्करण के 'जस्ट जयपुर' में मेरा कार्टून कॉलम 'जस्टtoon' प्रकाशित हुआ है।
बहुत खुश हूं। आज अखबारी व्यंग्यचित्रकार भी हो गए।

बहरहाल इसके लिए समय के लिहाज से आशुतोष दिवेदी, दिलिप मंडल, इस्माइल लहरी, जयदीप कर्णिक, पुष्पेश पुष्प, महेंद्र प्रताप सिंह, अरविंद कुमार सेन, रवि, जितेंद्र राज चावला, संजीव माथुर और माणक लाल शर्मा आदि के मार्गदर्शन और उत्साहवर्धन के लिए तह-ए-दिल से शुक्रिया अदा करता हूं। आप लोगों के साथ इन सीढ़ियों का अंदाजा लगा।

जी करता है, कमसकम एक कोर खिलाकर आपका लोगों का मुंह मीठा कर दूं। लेकिन, पत्रकारी पेशे की यह नौकरी उपरोक्त लोगों की तरह साथ नहीं देती। मूही, फिलहाल साढ़े छह हजार के आस-पास तक की ही है।



आर्थिक सौजन्यों और आभारों खर्चापानी निपटा रहे है। एक टाइम का खाकर अगले के लिए आर्थिक इंतजाम करते है। वैसे इस 7 को 'गुजारा भत्ता' मिलेगा, तकरीबन 62-64 सौ रुपए। इसमें 2380 रुपए को कर्जा जो 7 तारीख तक और बढ़ जाएगा, के सहित सात से आठ हजार का अनिवार्य खर्च वहन करना है।

गोयाकि यह पत्रकारिता है और अपन इसके इसी धरातल पर है।

बीती रात एक पांच सितारा हॉटल 'मेरियेट' की इनॉग्रेशन डिनर पार्टी में रिर्पोटिंग करने गया था। लौटकर '27 रुपए में फुल धमाल' कर डिनर के रूप में अन्नपूर्णा माता के दर्शन किए। एक प्याउ से पीने का पानी, मांगी हुई एक बॉटल में भरकर रूम पर ले गया। एक आईआईएमसीयन दोस्त रात रूम पर मिलन आ गया था तो किराए की बाइक में पेट्रोल और डिनर खरीद पाया।

आज डिनर के लिए एक मित्र के साथ जुगाड़ की जुगत की थी, पर बात नहीं बनी। बहरहाल अभी लंच करने के लिए 10 रुपए के चार 'कागज' है और कुछ गोलाकार धातुएं भी है। लेकिन डिनर के लिए जुगाड़ तो करना ही है। ब्रेकफास्ट तो पिछले ढ़ेड-दो सालों में लगभग भूला-बिसरा सा शब्द हो गया है।

इन्हीं खुशियों और राहों के बीच जिंदगी (रेडियो वाले इरफान सर इसे ज़िन्दगी पढ़े) बढ़िया चल रही है।

इन खुशियों को माता-पिता, भगवान और 'प्रेमिका' को भी समर्पित करता हूं। 'प्रेमिका' जिसे उसकी शादी होने के बाद से देखे कुछ बरस हो गए है। बस माता रानी की कृपा है। आल इज वेल!

Friday, July 1, 2011

बला.. अबला..

क ही रास्ता था दोनों के स्कूल का। दोनों के स्कूल के रास्ते एक-दूजे के विपरीत थे पर किस्मत में शायद दोनों के रास्तों का जुड़ाव लिखा था। दोनों किशोरावस्था में अपनी स्कूलिंग करते प्यार नामक चीज की भी स्कूलिंग लेने की स्वभाविक स्थिति में थे। तो कक्षा दसवी के इस छात्र को आठवी कक्षा की इस लड़की के दीदार उस एक ही रास्ते पर हुए। दोनों पहली मुलाकात में एक-दूसरे को ध्यान से देखा किये। पतझड़ के उस मौसम में इन दोनों पौधों में प्यार के भौंर आने शुरू हुए। लड़की के लिए ये ताजातरीन अनुभव था और लड़के के लिए प्रेमप्रसंग का एक असल अनुभव। दोनों ने पहली मुलाकाम में एक-दूसरे को फौरी तौर पर पसंद किया।

   स्कूल का शैक्षणिक सत्र समाप्त हुआ और अब पतझड़ दोनों के शुरूआती जुड़ाव में शुरू हुआ। लड़का ग्यारहवी कक्षा में लड़की के भाई का ही सहपाठी हो गया। शुरूआत में तो लड़का ये नहीं जानता था कि उसके प्रेमप्रसंग की नायिका इस लड़के की बहन है। रास्ता एक ही था पर लड़की-लड़के के स्कूल जाने का समय अलग-अलग हो गया। इस लड़की के भाई और लड़के के बीच बारहवी तक दोस्ती अच्छी बनी रही। दोस्ती के कारण प्रेमप्रसंग का मामला अधर में छूटा रहा।

   पर प्यार और पिंपल्स छुपाए नहीं छुपते। लड़की के भाई को उसके दोस्त और अपनी बहन के बीच प्रेमप्रसंग का पता चला। हालांकि दोनों की दोस्ती के दौरान प्रेमप्रसंग बेहोशी में ही रहा था। फिर भी शक का कोई इलाज होता है न कोई डॉक्टर बन सकता है। इस शक के कारण दोनों लड़कों की दोस्ती में दरार आई जो एक खाई में बदल गई। दोनों हाथ मिलाने वाले दोस्तों में लड़की के भाई ने अपने दोस्त पर हाथ उठाया। उसी दिन से दोस्ती का मौसम पतझड़ का हो गया और जमीं मरू हो गई।

   उधर दोस्ती की जमीं मरू हुई लेकिन इधर प्रेमप्रसंग में मानो मानसून आ गया। लड़की ने फोन पर अपने प्यार को प्यार का इजहार किया। अब प्यार के मानसूनी बादल इस प्यार के रिश्ते को सींचते आगे बढ़ रहे थे। ये फुहारें दोनों को अच्छी लग रही थी। दोनों ने एकदूसरे को जाना और इसी बीच दोनों में अच्छीखासी नजदीकीयां बन गई।

   लड़की घर वालों ने इस प्यार को अपने छद्म सामाजिक चहरे पर पिंपल समझा और इसे जड़ से मिटाना चाहा। पर प्यार का पिंपल जो इलाज से बढ़ता है और दबाने से फोड़ा बन जाता है। दिली चोट का ये मामला दबाने और रूढीवादी झोलाछाप इलाज से जख्म बनाता गया। लड़की के घर वालों ने अपने पुरूषवादी फॉर्मेट में लड़की के प्यार को सपोर्ट नहीं किया बल्कि ये तो वायरस मान लिया गया। पर इस वायरस के लिए ऐंटी वायरस तैयार करना मुश्किल काम है। फिर भी लड़की के परिवार ने ऐंटी वायरस तैयार कर इस प्रेमप्रसंग के ‘वायरस’ पर इस्तेमाल किया। हुआ ये कि घर की सारी पुरानी रूढ़िवादी, पुरूषप्रधान, अबला नारी टाइप की सारी सिस्टम फाइल्स में इस वायरस की घुसपैठ हुई और नए वर्जन की सिस्टम फाइल बनाने की कोशिश हुई।

   पर इस कोशिश के सेटअप में मदरबोर्ड का एरर पहाड़ की तरह खड़ा हो गया। मदरबोर्ड याने लड़की की मां समाज के इंटरनेट की सारी पुरानी रूढ़िवादी, पुरूषप्रधान, अबला नारी टाइप की सारी सिस्टम फाइल्स को सपोर्ट करने वाली थी। पर लड़की इस इंटरनेट में 3जी की हिमायती थी। हुआ ये कि मदरबोर्ड ने लड़की की सारी सोशल नेटवर्किंग साइट्स को ब्लॉक कर दिया। अबला नारी वायरस से इस प्रेम के ‘वायरस’ पर हमला किया गया। इस वायरस और कई स्पेम्स से प्रेमप्रसंग को राइ से पहाड़ बना दिया गया। अब इस मदरबोर्ड पर प्यार से संबंधित कोई सॉफ्टवेयर या एप्लीकेशन चलना नामुमकिन था।

   सिस्टम के सीपीयू में पिता की भूमिका माउस की थी पर वो माउस ही बन गया। परिवार के पूरे सिस्टम में लड़कों के लिए इंटरनेट की कोई भी वेबसाइट पर रोक नहीं थी चाहे वो साइट प्यार की हो या फिर सेक्स की। मदरबोर्ड ने लड़की को प्यार के ‘वायरस’ से पीड़ित मानकर उसकी सारी सोशल नेटवर्किंग, एजुकेशनल, ऐंटरटेनमेंट और लव साइट्स ब्लॉक कर दी। इसमें सिस्टम के माउस और कीबोर्ड का भी सपोर्ट रहा।

इतना ही नहीं लड़की को मानसिक और शारीरिक प्रताडना दी गई। उसके मर जाने को ‘वायरस’ से मुक्ति मिलने का एक मात्र उपाय तक कहा जाने लगा। लड़की ने अपना मानसिक स्थिरता और संयम भी खो दिया। उसे खाना खाने और बनाने से भी दूर कर दिया गया। कमरे में कैद लड़की घर की पुरूषसत्ता और उसकी दासी मातृसत्ता से खूब पिटती रही। लंबे समय तक ऐसा चलते रहने से लड़की ने आत्महत्या रास्ता अपनाने के प्रयास किये। पर उसे इसकी इजाजत भी नहीं थी।

   आखिर वो अपनी मर्जी से कुछ भी नहीं कर सकती थी। प्रताड़ना चरम पर थी लड़के और लड़की के बीच संपर्क को शून्य कर दिया गया था। इस कारण लड़के ने लड़की को एक मोबाइल खरीद कर दिया ताकि वो मानसिक रूप से संबल बनी रहे। लड़की को अपने जिस्म का फैसला खुद लिया और दोनों को मिले तो महिनों हो चुके थे। लड़की ने कई बार आत्महत्या के लिए अपने हाथ को काट लिया था। उसका कोमल शरीर पिटाई के घाव और दागों से पटता जा रहा था। हाथों पर कई बार हाथ कांटने के इतने निशान हो गए थे कि एक बार सरसरी नजर से देखने पर नहीं गिने जा सकते थे। अब लड़के का दिया मोबाइल भी लड़की से लौटा दिया गया।

   प्रताड़नाओं की सारी हदें पार हो जाने पर लड़के ने लड़की के घर अपने पत्रकारीय संबंधों की मदद से पुलिस भेज दी। घरेलू हिंसा का मामला बनाने की सोची। पर पुलिस इन मामलों में हाथ खड़े कर देती है। घरेलू हिंसा कानून जैसे कई आधुनिक कानूनों के असल दुश्मन तो पुलिस खुद ही है। लड़की के पापा के रुतबे, पैसे आदि के सामने पुलिस ने सरेंडर कर दिया। आगे उलटा लड़के के घर पुलिस भेजी पर लड़के घरवालों ने पुलिस और लड़की के घरवालों का कड़ाई से सामना किया। लड़के के घर का सिस्टम नए वर्जन का था। लड़की की मां ने लड़के के घर का तीन-चार बार विजिट किया। लड़की के पापा और चाचा वगैरह तो लड़के के घर पहले ही पुलिस लेकर पहुंच चुके थे। लड़की भाई ने भी लड़के और अपनी बहन को कई गीदड़ भबकियां देने में कसर नहीं छोड़ी।

   आखिरकार इस ‘वायरस’ पर कोई एंटी वायरस हथकंडे विफल होते देख ब्रम्हअस्त्र का इस्तेमाल किया गया। अपने जीवन के 19 वसंत भी न देख पाइ उस लड़की की शादी कर देने का फैसला परिवार ने ले लिया। इस फैसले में न तो लड़की की भागीदारी थी न कोई रजामंदी। लड़के की सलामती की दुहाई देकर जबरन शादी का फैसला लड़की पर लाद दिया गया। इस दौरान लड़का अपने प्रेमप्रसंग के इस मोड़ पर अकेला होने के कारण कुछ करने में असमर्थ हो गया।

   कई मानसिक शारीरिक दबाव बनाकर लड़की से 8-10 साल बड़े लड़के से उसकी शादी जबरन कर दी गई।

Wednesday, April 6, 2011

मैं जेएनयू गया, वहां पर्चें बंट रहे थे जिसमें ये लिखा था-


गांजे की चीलम से निकलकर देख जालिम
सरफरोशों का वतन है यह मुर्दों का बाज़ार नहीं।

प्रियंका, सुभाष, रवि, पूजा, मनोज(जेएनयू)

दोस्तों बधाई हो.. आखिरकार 28 सालों बाद ही सही, भारत ने फिर से विश्वकप जीत लिया है। इस जीत में सभी भारतीयों ने अपना योगदान दिया है। चाहे वो घर में रहकर टीवी देखते हुए हो या स्टेडियम में पैसे खर्च कर।

जेएनयू के छात्रों ने भारतीय टीम का बढ़िया समर्थन किया। तमाम तरह की घटिया राजनीति के बाद भी वो लोग वामपंथियों के बहकावे में नहीं आये। बल्कि दुगने उत्साह और जोश-ओ-खरोश से गंगा-चंद्रभागा से लेकर ब्रम्हपुत्र हॉस्टल तक को गुंजायमान कर दिया। ये होना भी चाहिए भई। ऐसा मौका रोज-रोज थोड़े आता है? तो सभी हिंदुस्तानियों ने इस जश्न के माहौल में तह-ए-दिल से शिरकत की। टीम ने विश्व में राष्ट्र का नाम रोशन किया है इसलिए देश अपने अपने तरीके से खुश हो रहा है।

मगर विश्वकप ने जाते जाते कैंपस के छद्म वामपंथियों को अपनी ओछी राजनीति की सूखी हुई जर्जर बेजान जमीन पर बहार लाने का मौका भी दे दिया। और ये मौका है अल्पसंख्यकों में बहुसंख्यकों का अनजान डर। आखिर वामपंथियों को ये कैसे रास आता कि कैंपस के सारे धर्मों के छात्र एक साथ एक झंडे के तले आ जाए? भई, इनकी राजनीति की दुकान कैसे चलेगी फिर? हिंदू-मुस्लिम एक हो गए तो इनको कौन पूछेगा? इनकी राजनीति ही इस बात पर आधारित है कि एक पत्थर के दो टुकड़े कर दो...। उनमें आचार-विचार, रहन-सहन और मानसिक अंतर को गहरा कर दो। एक टुकड़े को दूसरे का भय दिखाओ...। फिर स्वतः वो छोटा टुकड़ा सदा के लिए बड़े टुकड़े के भय में इनके पीछे-पीछे घूमता रहेगा। कैंपस में पिछले कई सालों से यही होता रहा है। पर जब से लिंगदोह बाब ने अपनी लाठी चला दी तब से इन वामपंथियों को कोई मद्दा नहीं मिल रहा है। मगर इस गुजरे हफ्ते ने इनकी मुराद पूरी कर दी।

साबरमती-ताप्ती हॉस्टल से जब चंद हिंदुस्तानी पाकिस्तानी समर्थकों को बाहर किया तो ये बात इन्हें नागवार गुजरी। भई वो चंद पाकिस्तानी समर्थक ही तो मुसलमान थे बाकी कोई थोड़े ही थे? ये वामपंथी इस बात को सब के सामने लाना ही नहीं चाहते कि उन्हें बाहर करने वाले 6 छात्र हमारे मुसलमान भाई ही थे जिनके सीने में हिंदुस्तानी दिल धड़कता है। आखिर क्यों कोई हिंदुस्तानी पाकिस्तानी को सपोर्ट करना चाहेगा और वो भी हिंदुस्तान के खिलाफ? इन्ही चंद पाकिस्तानी समर्थकों की वजह से एक पूरी कौम बदनाम हो सकती थी। मगर नहीं, ये वामपंथी एक हिंदुस्तानी मुस्लिम को हिंदुस्तानी क्रिकेट टीम के समर्थन करते हुए नहीं देख पाते। इनकी समझ में भारतीय संविधान ने इन्हें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (Freedom of Expression) तो दिया है पर मौलिक कर्तव्य (Fundamental Duties) इन्हें पाकिस्तान की सरकार ने दी है। वो भी ये कि जिस थाली में खाओ उसी में छेद करो। ये गुण तो उन्हें विरासत में मिला हुआ है। अरे ये तो यह भी भूल जाते है कि एक कुत्ता भी इनसे वफादार होता है जो कम से कम जहां खाता है वहीं की रखवाली करता है। ना कि घर आये हुए चोरों को लालटेन दिखाता है। (1962- चीन के आक्रमण के समय ये वामपंथी इसी मुगालते में खुश हो रहे थे कि चीन इन्हें ‘liberate’ करने आ रहा है..)

अब बात करें राष्ट्रवाद और अतिवाद या अन्य..-वाद की (‘Jingoism, Exteremism or any other..-ism) की जोकि ऑस्ट्रेलिया-पाकिस्तान-श्रीलंका पर विजय प्राप्त करने के बाद हिंदुस्तानियों ने प्रदर्शित किया। अगर पूरा देश एक क्रिकेट मैच में जीत का जश्न मनाने सड़कों पर निकल जाता है तो क्या ये राष्ट्रवाद है? अतिवाद है? क्या जिस प्रकार भारत में पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाए गए वैसे पाकिस्तान में भारत जिंदाबाद कहा जा सकता है?

क्या वंदे मातरम् और भारतमाता की जय कहने मात्र से सांप्रदायिकता का खतरा मंडराने लग जाता है? क्या जय श्री राम और जो बोले सो निहाल के नारों से अल्पसंख्यकों को खतरा महसूस होने लगता है? क्या हमारा सामाजिक ढांचा इतना कमजोर है? दुनिया के सारे देशों में किसी न किसी रूप में अपनी मातृभूमि की पूजा की जाती है। हां पूजा-इबादत के तरीके अलग हो सकते है और इसमें बुरा क्या है। मगर ये भ्रमित वामपंथी भूल जाते है कि हिंदुस्तान की आबादी में हिंदू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, जैन, बौद्ध, पारसी सारे सम्मलित है। यहां दिन की शुरुआत अजान और आरती के साथ होती है। ये वो देश है जहां की बहुसंख्यक हिंदू जनता एक इसाई औरत को अपना नेता चुनती है। और वो देशहित में एक सिक्ख के हाथ में बागडोर सौंप देती है। जिसे एक मुस्लिम राष्ट्रपति शपथ दिलाते है। अतः वामपंथी जिनका खुद ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, बहुसंस्कृतिवाद, धर्मनिरपेक्ष और विपक्ष (Freedom of Expression, Multiculturalism and Opposition ) में विश्वास नहीं है। वे हम भारतीयों को सामाजिकता का पाठ ना पढ़ाए?

ये इस बात को भलीभांति जानते है कि इसकी प्रोगेसिव डेमोक्रेटिक पॉलिटिक्स और ये सारी हवाबाजी सिर्फ हिंदुस्तान मे और वो भी जेएनयू में ही चल सकती है। नॉर्थ गेट के बाहर एक अलग दुनिया है। जो इनके प्रपंचों को खूब जानती है। वहां इनके पुरेक अमेरिकन कॉर्पोरेट वर्ल्ड का अभिन्न हिस्सा बन चुके है। लेवाइज (Levis) की जींस पहनते है और हुंदई (Hyundai) की गाडियों में चलते है। और ऐसी इमारतों में काम करते है जिनकी दिवारों के पार छत्तीसगढ़-ओडिशा के आदिवासियों की चीखें नहीं पहुंच पाती है। बहुत शान से ये नक्सली आंदोलनों को अपना समर्थन देते है। कोई यह आंकड़ों में ये गिन कर बताए कि सालाना बजट 1800 करोड़ रुपए से अधिक का है इसमें उन मजलूम आदिवासियों के कल्याण के निमित्त कितने पैसे खर्चे है? कितने स्कूल बनाए है? कितनी कल्याणकारी योजनाएं बनाइ है? अब भई, ये सब तो सरकारी आरटीआइ की जद से बाहर है वरना इनके मानस-पुत्रों को भी पता चले कि जिनके पद-चिन्हों पर ये चल रहे है वहां कितना घोटाला है? सब सत्ता का खेल है भई। हाथ में सत्ता आते ही काहे के गरीब, काहे के आदिवासी?? कोई हमें बता दे कि नेपाल में माओवादियों की सरकार बने कितने समय बीत गए, कितने पिछड़े-शोषितों एवं कुचले हुए लोगों का कल्याण किया माओवादियों ने?

एक बार फिर से हम आम छात्र इन सभी कैपसवासियों का तहेदिल से शुक्रिया अदा करते है जिन्होंने तमाम वामपंथी प्रपंचों के बाद भी टीम इंडिया की हौसला अफजाइ की और जीत के बाद एक झंडे के तले आकर खुशी जाहिर की। हम अपने पथभ्रष्ट वामपंथियों का भी आव्हान करते हि कि वो चीनी गुलामी छोड़ के देश हित में सोंचे कम से कम हिंदुस्तानी नमक का हक अदा करें क्योंकि...

जो भरा नही है भावों से, जिसमें बहती रसधार नहीं।
हृदय नहीं वो पत्थर, जिसमें स्वदेश का प्यार नही।। (दिनकर)
 


Thursday, March 31, 2011

RTI आरटीआइ


मैंने RTI का वीडियो बनाया है.

ये आइआइएमसी के ग्रुप-C ने अपने सोशल एडवर्टाइजिंग में शामिल किया है।

Wednesday, March 16, 2011

HumLog हमलोग IIMC Delhi HJ by Amit Pathe



HumLog हमलोग IIMC Delhi HJ by Amit Pathe

ल्दबाजी में बना ये वीडियो. 

जिस तरह एग्जाम की तैयारी पिछली रात को होती है उसी तरह ये वीडियो हमलोग (एलुमिनाइ मीट) की पिछली रात को बनाया था। शाम को वीडियो बनान तय हुआ और रात के दो बजे बन गया।

सुबह पांच बजे तक वीडियो तैयार हो गया। मैंने संभवतः सभी के फोटो सभी के फोटो शामिल करने का प्रयास किया है। फोटो रेंडमली सिलेक्ट की गई है। काफी लोग छूट गए है ऐसी सभी त्रुटियों के लिए क्षमा करें।

Saturday, March 5, 2011

हमलोग

भारतीय जनसंचार संस्थान, नई दिल्ली (IIMC) हिंदी पत्रकारिता विभाग के पूर्व छात्रों का मिलन समारोह
'हमलोग'

ये मैंने डिजाइन किया



हमलोग

भारतीय जनसंचार संस्थान, नई दिल्ली (IIMC) हिंदी पत्रकारिता विभाग के पूर्व छात्रों का मिलन समारोह
'हमलोग'
ये मैंने डिजाइन किया

Monday, February 28, 2011

'दिल्ली मेल' आम बजट संस्करण

'दिल्ली मेल' आम बजट संस्करण, पेज-2
संपादन- आशीष मिश्र
कार्यकारी संपादक, डिजाइनिंग, प्रस्तुती, इलेस्ट्रेशन और कार्टून- अमित पाठे



Sunday, February 20, 2011

www.mediasaathi.com- मीडिया फ्लॉवर

www.mediasaathi.com पर आया मेरा इंटरव्यू-

http://www.mediasaathi.com/catgory_other_right.php?cat=cartoon

http://www.mediasaathi.com/cat.php?id=8

 
"मीडिया साथी डॉट कॉम" के इस स्तंभ "मीडिया फ्लॉवर" में प्रस्तुत हैं मीडिया की बगिया में खिलते मीडिया फ्लॉवर्स के साक्षात्कार या उनसे संबंधित आलेख।
 

अमित पाठे- मीडिया की कच्ची मिट्टियाँ और कुशल कुंभकार की तलाश
साक्षात्कार – महेन्द्र प्रताप सिंह
“ 'मीडिया फ़्लॉवर' में हम आपकी मुलाक़ात करवा रहे हैं, आईआईएमसी के छात्र अमित पाठे से। अमित मीडिया का कोई विलक्षण छात्र तो नहीं है; किन्तु उसमें पत्रकारिता के प्रति गजब का जुनून है। बक़ौल अमित उसने अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई इसीलिए छोड़ी कि अपने मन का काम कर सके। किन्तु हमारे मुताबिक़ जो बात उसे दूसरे छात्रों से अलग करती है वह है घाघ दुनियादार होने में उसकी धीमी रफ़्तार। इस स्तंभ के लिए हमने अनेक कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के छात्र-छात्राओं को परखा। उनमें से कुछ अपने संस्थानों में हुई परीक्षाओं में मिले अंकों के आधार पर टॉपर्स थे, तो कुछ अनेक मीडिया संस्थानों के लिए कार्य कर चुके थे या कार्य कर रहे हैं। लेकिन उनमें से लगभग सभी पत्रकारिता से अधिक रफ़्तार से जो चीज़ सीख रहे हैं, वह है कुटिल दुनियादारी। अमित में यह रफ़्तार कम है। सम्पर्क किए जाने पर जहाँ दूसरों ने इस साक्षात्कार के लिए अपने नाम की ज़िद की, वहीं अमित ने निर्विकार भाव से अपने दोस्तों केशव कुमार, ददन विश्वकर्मा और गुंजन जैन के नाम की सिफ़ारिश की। फ़ेसबुक पर उसकी भाषा और व्यवहार संयत और गरिमापूर्ण है। बैतूल के छोटे से कस्बे सारनी में जन्मे अमित में किशोरावस्था से ही पत्रकारिता का जज़्बा था। पत्रकारिता में इसी रुचि के कारण उसने इंजीनियरिंग के बजाए पत्रकारिता शिक्षा प्राप्त करने की ठानी और बैतूल से इंदौर चला आया। देवी अहिल्याबाई विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में बीए(ऑनर्स) करने के बाद फ़िलहाल वह आईआईएमसी में स्नातकोत्तर डिप्लोमा कर रहा है। किंतु इतने जुनून के बाद भी अमित की कुछ भयानक कमियाँ हमारी मीडिया शिक्षा के स्तर में कमी की ओर इशारा करती हैं। अमित के साक्षात्कार के बहाने हम वर्तमान पत्रकारिता शिक्षा के स्तर की भी चर्चा करेंगे।
                                                                  - महेन्द्र प्रताप सिंह
अमित, सबसे पहले अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में बताएँ।
मैं एक मध्यमवर्गीय परिवार से हूं। मध्यप्रदेश में सतपुड़ा की वादियों के बीच बसे बैतूल ज़िले के एक कस्बे सारनी से हूँ। ये कस्बा विद्युत और कोल की नगरी के नाम से जाना जाता है। इसी कोल नगरी में कोल इंडिया की खदानें है, जिसमें मेरे पिताजी गोपीचंद पाठे एक कोयला कामगार है। मेरे पिताजी का पुस्तैनी निवास पड़ौस के ज़िले छिंदवाड़ा में है। माताजी मीना पाठे हाउस वाइफ है। परिवार में हम दो भाई और एक बहन (सबसे बड़ी) है। बहन ने बीएचएससी तक पढ़ाई की है उनकी शादी हुए चार साल हो चुके हैं। भाई ने इंदौर से बीकॉम(फॉरेन ट्रेड) तक पढ़ाई करने के बाद जीजा जी के साथ बिज़नेस में हाथ बँटाना शुरू किया है।
अपने बचपन के विषय में कुछ बताएँ।
मध्यम वर्गीय परिवार में बचपन की अपनी सीमाएँ हो जाती है। मैं पढ़ाई में अपने भाई-बहन से बेहतर था। बचपन को अमित पाठेयाद करूँ तो यही छवि बनती है कि बचपन गंभीर ही रहा। मुझे ज़्यादा खेलने में रुचि नहीं रही। मैं दसवीं तक आते-आते तक़रीबन पूरी तरह से पढ़ाकू ही रहा। मुझे कभी किसी ने शरारती नहीं कहा। मैं मिलनसार और वाक्पटु ज़रूर था। मेरी दोस्ती अपनी उम्र से बड़े लोगों से ही ज़्यादा थी। दसवीं के बाद गणित विषय ले लेने के बाद मुझे महसूस होने लगा कि ये सब मेरे लिए नहीं है। मैं किताबी कीड़ा नहीं बन पाउँगा। वहीं घर की आर्थिक स्थिति भी ऐसी नहीं थी कि अंग्रेज़ी स्कूलों में पढ़ पाता। फटी टाटपट्टी पर बैठकर अर्धसरकारी हिंदी स्कूलों में ही पढ़ पाया। पिताजी ने हमेशा अपनी हैसियत से बढ़कर पालन-पोषण किया है और यही कारण है कि आज वे दूसरों की तरह अपने बैंक बैलेंस पर दंभ नहीं भर पाते है। पर इस बात की ख़ुशी ज़ाहिर करते है कि मैंने अपनी ओर से बच्चों को अच्छे से अच्छा देने का प्रयास किया है।
आपका इंजीनियरिंग के लिए भी सिलेक्शन हो गया था। फिर क्या हुआ ?
12वीं गणित से पास करने के बाद इंजीनियरिंग करने की होड़ होती है, तो मैंने भी एमपी प्री-इंजीनियरिंग टेस्ट दे दिया। सिलेक्शन के बाद इंजीनियरिंग की काउंसलिंग में पहुँचा। कॉलेज भी आबंटित हो गया। लेकिन वहीं बैठे-बैठे सोचा- तू किताबी कीड़ा तो है नहींआगे भी रोते-रोते इंजीनियर नहीं बनना है। अब सोच लिया, बीई नहीं करना है। काउंसलिंग में नॉट इंटेरेस्टेड करवा कर वापस आ गया। मेरे पास आज भी आरजीपीवी-भोपाल में काउंसलिंग का 'नॉट इंटेरेस्टेड' सर्टिफ़िकेट रखा है। बड़ा भाई इंदौर में पढ़ रहा था। उसने वहाँ जेटकिंग में हार्डवेयर नेटवर्किंग में एडमिशन करवा दिया। लेकिन उसमें मैंने पाया, 10वीं पास भी पढ़ रहा था और 11वीं फ़ेल भी। तय किया, यहाँ भी नहीं पढ़ना है। वैसे दसवीं में अच्छे प्रतिशत के कारण मेरा प्रोडक्शन ब्रांच में राज्य में चौथा स्थान आया था। उस समय भी पिताजी आर्थिक कमज़ोरी के कारण मुझे पॉलीटेक्निक मे एडमिशन नहीं दिलवा पाए।
पत्रकारिता में आपकी रुचि कब पैदा हुई?
जब ग्यारहवी क्लास में पहुँचा तब मेरे स्कूल की फ़ीस अचानक चार गुनी बढ़ गई। ये मेरे पिताजी के लिए उस समय बड़ी रक़म थी। मेरे एक दोस्त राजू पवार (जो अब मेरे जीजा जी बन चुके हैं) के पास दैनिक जागरण की एजेंसी थी। मैंने एक ख़बर बनाई और जागरण के ज़िला ऑफ़िस भेज दी। अगले दिन ख़बर हमारे शहर के पेज की लीड बनकर आई। मैंने फ़ीस के साथ ही क्षेत्र में अच्छे स्कूलों की कमी का मुद्दा भी उठाया था। ख़बर मेरे नाम (बाईलाइन) प्रकाशित हुई। अगले दिन पूरे स्कूल में मेरी ख़बर के चर्चे थे। धीरे-धीरे मैंने नगरपालिका और पुलिस थाने तक से ख़बरें लेना शुरू कर दिया। मेरी पहचान भी बनने लगी। पत्रकारिता की ओर रुझान बढ़ गया। इसमें लग जाने के बाद पढ़ाई से दूरी बढ़ती गई और इसी कारण रिजल्ट में प्रतिशत भी गिरने लगा।
अमित पाठेजीवन में आपके क्या लक्ष्य हैं और क्या पत्रकारिता से वे पूरे हो सकेंगे?
मेरा लक्ष्य है कि मैं अपने यहाँ जाकर राज्य या ज़िला स्तर पर पत्रकारिता करूँ। इससे पहले मैं महानगर से लेकर हर स्तर पर पत्रकारिता का अनुभव पाना चाहता हूँ। अभी सभी मीडिया में जाकर अनुभव लेना चाहता हूं। बाक़ी क्षेत्रों की तरह यह क्षेत्र शायद ज़्यादा कठिन है, पर यहाँ मुझे संतुष्टि बहुत मिलती है। आपकी मेहनत का परिणाम तुरंत मिलता है। इसलिए कई क्षेत्रों को छोड़कर मैंने पत्रकारिता को चुना।
ये कब तय किया कि पत्रकारिता को कैरियर के रूप में अपनाना है?
इंजीनियरिंग में दाख़िला न लेने और तीन कोर्स में एडमिशन लेने के बाद छोड़ देने के बाद परिवार चिंतित था। उन्हें लग रहा था कि ये पढ़ाई छोड़कर क्या पत्रकारिता के भूत में लग गया है। दिन भर घूमता रहता है और घर में इतने सारे न्यूज़पेपर और मैग्ज़ीन लगवा ली हैं। उसी दौरान अख़बार में देवी अहिल्याबाई विश्वविद्यालय के पत्रकारिता और जनसंचार अध्ययनशाला का एडमिशन नोटिस देखा। मैंने फ़ॉर्म डाउनलोड करवाया, डीडी बनवाई और भेज दिया। वहाँ लिखित परीक्षा और इंटरव्यू के बाद मेरा चयन हो गया।
ग्रेज़ुएशन के बाद आईआईएमसी को क्यों चुना?
वैसे आईआईएमसी को चुनना मात्र ऐसा ही है, जैसे किसी कपड़े पर कोई बड़े ब्रांड की मुहर लग जाना। मेरेअमित पाठे आईआईएमसी में आने का भी यही एक कारण है। साथ ही मैं दिल्ली की पत्रकारिता को नज़दीक से जानना चाहता था। आईआईएमसी में आने से पहले मेरा चयन महात्मा गाँधी अन्तर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में एमए (मास मीडिया) के लिए हो गया था। आज मैं आइआईएमसी में जो विषय पढ़ रहा हूँ, उसे अपने ग्रेज़ुएशन में ही पढ़ चुका हूं। बस, वहाँ उन्नीस पढ़ा था, यहाँ की पढ़ाई इक्कीस है।
आईआईएमसी में अपने अब तक के अनुभव को बताइए।
यहाँ पढ़ाई का माहौल उम्दा है। फैक़ल्टी अनुभवी हैं। क्योंकि यह केन्द्रीय संस्थान है, इसलिए यहाँ सुविधाओं की कमी नहीं है। यहाँ की बढ़िया बात ये है कि यहाँ पढ़ाई और परीक्षा ज़्यादा व्यावहारिक है। इसका अंदाज़ा आप इस बात से लगा सकते हैं कि यहाँ मेरा पहला सेमेस्टर का एग्ज़ाम मेरा अब तक का सबसे अच्छा, हल्का-फुल्का और व्यावहारिक एग्ज़ाम था। यहाँ विषय के जानकारों को पढ़ाने के लिए बुलाया जाता है जो बढ़िया बात है। समय-समय पर अतिथि वक्ताओं से पढ़वाया जाता है। टीवी चैनलों के विभिन्न कार्यक्रमों के अनुभव के लिए भेजा जाता है। किन्तु एक बात है कि यहाँ पढ़ाई के दौरान मीडिया हाउस में इंटर्नशिप के लिए भी भेजना चाहिए।
अमित, आपके ब्लॉग पर जो लेख हैं, उनमें वाक्यों और वर्तनी की बहुत अशुद्धियाँ हैं, जबकि आप भविष्य में हिन्दी के पत्रकार बनने के इच्छुक हैं और तीन साल तक देवी अहिल्याबाई विश्वविद्यालय और क़रीब छह माह से आईआईएमसी में शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। क्या किसी प्रोफ़ेसर ने आपकी इन ग़लतियों की और ध्यानाकर्षित किय़ा या शुद्ध हिन्दी लिखने की शिक्षा दी।
जी, आप ठीक कह रहे हैं। यही तो हमारी शिक्षा पद्धति की ख़ामियों में से एक है। देवी अहिल्याबाई विश्वविद्यालय में तो शायद ही कभी किसी ने ध्यान दिलाया हो। आईआईएमसी में ये कमियाँ दूर हो सकती थीं पर यहाँ इस साल से क्लास की क्षमता दोगुनी कर दी गई है। इससे अध्यापक छात्रों पर निजी ध्यान नहीं दे पाते हैं। स्कूल के समय तो हमारी क्लास में 100 से 120 स्टूडेंट्स एक क्लास में बैठते थे। एक बैंच पर तीन की जगह चार-पाँच छात्र ठूँसे जाते थे। वहाँ भी ऐसा सौभाग्य प्राप्त नहीं हो पाया कि कोई व्यक्तिगत रूप से भाषा पर ध्यान दे सके।  ‘पत्रिका में काम करते हुए मेरे वरिष्ठों से बहुत कुछ सीखने को मिला। पर मैं सिटी सप्लीमेंट (पूल-आउट) डेस्क पर था जहाँ हिंदी पर ज़ोर नहीं दिया जाता था। वहाँ हिंग्लिश को इस्तेमाल करने पर ज़ोर दिया जाता था। मेरे डेस्क इंचार्ज श्री नितिन चावड़ा जी ने मेरा बहुत मार्गदर्शन किया।
आपके ब्लॉग में एक आलेख है आईआईएमसी में आने की जुगाड़। इसमें आपने लिखा है कि आपने पेन ड्राइव के नाम पर ठगी करने वाले एक शख़्स को आपने न केवल ख़ुद पैसा लेकर छोड़ दिया बल्कि पुलिस वालों को भी उस पैसे में से हिस्सा दिया। अमित, मैं आपको कहना चाहूँगा कि आपका ये काम अनेक तरीक़ों से न केवल अनैतिक था बल्कि एक क़ानूनी अपराध भी था। जिस ठग को गिरफ़्तार करवा के आपको उसे सज़ा दिलवाना चाहिए थी, उसे आपने पैसे लेकर जाने दिया। पैसा लेने के लिए आपने उसे ब्लैकमेल किया, साथ ही जिन रिश्वतख़ोर पुलिसकर्मियों के ख़िलाफ़ आपको लिखना चाहिए, आपने ख़ुद उन्हें रिश्वत दिलाई। क्या आपको नहीं लगता कि एक पत्रकार होने के नाते आपको जिस अनैतिकता और अपराध के विषय में आवाज़ उठाना चाहिए थी आप ख़ुद वही कर रहे हैं।     क्या आपके किसी प्रोफ़ेसर ने आपकी इस ग़लती के बारे में बताया और जीवन और पत्रकारिता में नैतिकता अपनाने के लिए प्रेरित किया?
जी बिल्कुल, आईआईएमसी में आने की जुगाड़अनैतिक, अमानवीय और आपराधिक काम था। इसके पीछे ऐसे कई कारण हो गए कि मुझे ये करना पड़ा। मैंने इस स्टोरी को करने का पूरा मन बना लिया था। मैंने फ़ोटोग्राफ़र को बुला कर फ़ोटो भी करवा लिए थे। ऑफ़िस जाने पर मेरे सीनियर ने कहा, ये क्राइम बीट की ख़बर है, मैं इसमें कुछ नहीं कर सकता। क्राइम रिपोर्टर ने इस ख़बर को लेने से इंकार कर दिया। कोई स्थापित पत्रकार एक नए-नए पत्रकार को अपने क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं करने देना चाहता। उन्होंने कई बातें बनाकर मेरी स्टोरी बनाने से इंकार कर दिया। मैं शाम को अपराधी से मिलने गया। वो रोते हुए कहने लगा कि पुलिस वाले मुझसे पाँच हजार मांग रहे हैं। मैं इतने पैसे नहीं दे सकता। मेरे साथ 'पत्रिका' के ही एक सीनियर जर्नलिस्ट भी थे। उन्होंने कहा, अमित बेटा इस छोटे-मोटे ग़रीब को क्यों परेशान करना। छोड़ दो बेचारे को, ग़रीब है,  रोज़ी-रोटी के लिए यहां कमाने आया है। वहाँ अपराधी के बुज़ुर्ग पिताजी भी आ गए। वे मेरे हाथ जोड़ने लगे। यह मुझसे देखा नहीं गया। पुलिस वाले ने मुझसे बात-बात में ही कह दिया था कि अपराधी से पैसे ले लीजिए। मैंने उसे पुलिस वालों से बचाया, वरना वे उससे पाँच हज़ार रुपए ऐंठ लेते। मुझे आईआईएमसी के इंटरव्यू के लिए जाना था और मेरे पास पैसे नहीं थे। मैंने उससे चार सौ रुपए+दो सौ रुपए लिए। दो सौ रुपए पुलिस वाले को दे दिए। इस चार सौ रुपए से मैंने दिल्ली आने जाने का किराया जुटाया, जो मेरे पास नहीं था। मैं जनरल डिब्बे में नीचे कपड़ा बिछाकर सोते हुए दिल्ली इंटरव्यू के लिए पहुँचा। माना ये गलत था, पर पुलिस वाले उससे पाँच हजार लेते, मैंने उसे बचाया।
अमित, पत्रकारिता एक ज़िम्मेदारी भरा काम है। इसका उद्देश्य महज़ सूचना देना नहीं है, बल्कि इससे बड़े सामाजिक दायित्व भी जुड़े हुए हैं। मैं चाहूँगा कि आप अपने फ़र्ज़ के प्रति हमेशा ईमानदारी और नैतिकता का पालन करें और जीवन-मूल्यों का निर्वहन करना सीखें। यह थोड़ा कठिन है, किन्तु असंभव नहीं है।    
इन उपयोगी सलाहों के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद। मैं इस पर ज़रूर ध्यान दूँगा और आगे कोशिश करूँगा कि शिकायत का मौक़ा न दूं।
अमित मैं ये बार-बार महसूस करता हूँ कि वर्तमान मीडिया शिक्षण संस्थानों में छात्रों को स्तरीय और पर्याप्त प्रशिक्षण नहीं दिया जाता। एक छात्र होने के नाते आपका क्या सोचना है और मीडिया शिक्षण के स्तर को सुधारने के लिए शिक्षण संस्थानों को क्या क़दम उठाना चाहिए?
आज हमारी मीडिया के जो हाल हैं, उसके पीछे मैं मुख्य कारण मीडिया शिक्षा में पिछड़ेपन को ही मानता हूँ। अगर अमित पाठेआज़ादी के बाद से ही हमने मीडिया शिक्षा की ओर ध्यान दिया होता तो आज हमारे मीडिया की स्थिति कहीं बेहतर होती। हमारे देश में आज भी मीडिया शिक्षा की हालत दयनीय है। विश्वविद्यालयों में एक कमरे में पत्रकारिता विभाग चल रहे है। इन विभागों में योग्य प्रोफ़ेसरों की भी आवश्यकता है। यहाँ तक कि मैं आईआईएमसी में भी कुछ अस्थाई प्रोफेसरों को अच्छा प्रोफेसर नहीं मान पाता हूँ, इससे ही आप पूरे देश के मीडिया संस्थानों की स्थिति का अंदाज़ा लगा सकते है, जबकि देश के सर्वश्रेष्ठ मीडिया संस्थान में भी बेहतर प्रोफ़ेसरों का टोटा है।
अच्छा, ये बताइए कि देवी अहिल्याबाई विश्वविद्यालय और आईआईएमसी के शैक्षणिक माहौल में कितना अंतर आपने पाया?
हम हमारी यूनिवर्सिटियों की हालत तो जानते ही हैं। दिल्ली जैसे महानगरों को छोड़ दें तो विश्वविद्यालयों की स्थिति अच्छी नहीं है। फिर भी देवी अहिल्याबाई विश्वविद्यालय की बात करें तो यहाँ पढ़ाई और माहौल बढ़िया है। ये देश के सबसे पुराने पत्रकारिता विभागों में से एक है, जिसे अब 25 वर्ष हो रहे है। देवी अहिल्याबाई विश्वविद्यालय में सुविधाएँ कम थीं। जो थीं भी, उनका सही इस्तेमाल छात्रों के हित में नहीं करवाया जाता था। वहाँ कैंपस में कुलपति को लेकर राजनीति हमेशा चलती रहती थी, जिससे विश्वविद्यालय का स्तर लगातार गिरा है।
इंदौर और दिल्ली के माहौल में कितना अंतर है?
दिल्ली और इंदौर की तुलना पिजा और पराठे की तरह है। अब आप पर निर्भर करता है कि आपको क्या पसंद आता है। माहौल में अंतर को आप इस तरह से ही देख सकते है कि दिल्ली में कैंपस में स्मोकिंग फैशन है, जबकि इंदौर में इसे ज़्यादातर घृणा की तरह ही देखा जाता है। महानगर की इस मरीचिका में कईयों की राहें भटक भी जाती हैं। पर मैंने दिल्ली आते ही अपनी बची-खुची बुरी आदतें भी छोड़ दी है।
आपके पसंदीदा प्रोफ़ेसर कौन हैं और क्यों?
देवी अहिल्याबाई विश्वविद्यालय में मेरे मीडिया क़ानून के प्रोफ़ेसर श्री आनंद पहारिया से मैं बहुत प्रभावित रहा। वे पढ़ाने में भले ही 20 नहीं थे, पर निजी मार्गदर्शन में 200 प्रतिशत थे। जो मैं मानता हूं कि आज के समय में ज़्यादा ज़रूरी है, न अमित पाठेकि किताबी ज्ञान। उन्होंने मेरे लेखन को बढ़ावा दिया, मुझसे आईआईएमसी का फ़ॉर्म भरवाया और मेरा मार्गदर्शन और हौसला अफ़जाई भी की।
मीडिया का कौन सा क्षेत्र आपको पसंद है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया या प्रिंट मीडिया?
प्रिंट मीडिया की आज भी अपनी विश्वसनीयता है साथ ही इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से छवि भी बेहतर ही है। मीडिया के कैरियर की शुरुआत प्रिंट से करने पर आपको एक आधार मिलता है। चूँकि आप लिखना सीखते है, जो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की भी पहली सीढ़ी है। प्रिंट आज भी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से ज़्यादा भरोसेमंद है। इलेक्ट्रॉनिक के मुक़ाबले प्रिंट में काम करना थोड़ा सहज है, चूँकि यहाँ आपका काम काफ़ी हद तक 24 X7 नहीं होता है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में न्यूज़ की ज़िदगी कुछ समय की ही होती है, जबकि प्रिंट में अगले अंक तक वो जीवित रहती है, कम से कम 24 घंटे तो है ही।
आप कहाँ काम करना चाहेंगे ? इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में या प्रिंट में ? तथा फ़ील्ड में या डेस्क पर ?
प्रिंट मुझे पसंद है पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में भी काम करना है। मैं तो चाहता हूं कि सभी स्तरों का अनुभव लूँ। बिना फ़ील्ड वर्क के डेस्क पर काम नहीं किया जा सकता है। शुरूआत तो रिपोर्टिंग से ही करना चाहूंगा। एक लंबे समय बाद आप इस क़ाबिल बन ही जाते हैं कि संस्थान आपको डेस्क पर नियुक्त कर ही देता है, ताकि आपके अनुभव से डेस्क टीम मज़बूत हो सके। संपादकीय ही क्या मैं तो विज्ञापन, प्रसार और प्रबंधन के क्षेत्र में भी काम करने का अनुभव लेना चाहता हूं। मुझे फ़ोटोग्राफ़ी का भी बहुत शौक़ है। आर्थिक कारणों से मैं आज तक कैमरा नहीं ख़रीद पाया और मेरे मोबाइल में भी कैमरा नहीं है। इस बात का मुझे हमेशा मलाल रहता है। ग्रेज़ुएशन में 24 विषय पढ़े हैं, जिसमें मुझे फ़ोटो जर्नलिज़्म में सबसे ज़्यादा नंबर मिले है। मैं आगे कभी फ़ोटो जर्नलिज़्म का अलग से कोर्स करना चाहता हूँ। मुझे वेब-पत्रकारिता में भी काम करना है जिसका आगे अच्छा भविष्य है।
कार्टून बनाना आपने कब से और कैसे शुरू किया?कार्टून
कार्टून बनाने की शुरुआत हुए अभी पूरा एक महीना भी नहीं हुआ है। मैं अभी इसकी पहली सीढ़ी पर ही हूँ। मेरे दोस्तों, टीचर्स आदि को मेरे कार्टून पसंद आते हैं और उनके उत्साहवर्धन से ही मैं कार्टून बनाता रहता हूँ। मुझे याद है मेरे पहले कार्टून पर नईदुनिया के संपादक जयदीप कर्णिक जी, दैनिक भास्कर के मशहूर कार्टूनिस्ट इस्माइल लहरी जी और आईआईएमसी के प्रोफ़ेसर दिलीप मंडल जी के सकारात्मक और उत्साहवर्धक कॉमेंट आए थे। इससे उत्साहित होकर मैंने कार्टून बनाना अपनी दिनचर्या में उतार लिया।
कार्टून बनाने को अपने कैरियर के रूप में चुनना चाहेंगे?
जैसा मैंने कहा कि मैं मीडिया के हर आयाम और स्तर का अनुभव चाहता हूँ इसलिए एक कार्टूनिस्ट के रूप में काम करने का मौक़ा मिलने पर ज़रूर करूँगा। अभी तो ये सोच कर ही सीख रहा हूँ कि ख़ुद की स्टोरी के लिए ख़ुद ही कार्टून भी बना लूँ, कार्टूनिस्ट की मदद लेने की ज़रूरत न पड़े। फ़ोटोग्राफ़ी सीखने का भी यही कारण है। आगे जर्नलिज़्म में मल्टीटास्किंग जर्नलिस्ट्स की आवश्यकता होगी, जो कई व्यक्ति के काम अकेले ही कर लें। इसके लिए ख़ुद को तैयार कर रहा हूं।
अमित, अपनी रुचियों और इंटरेस्ट के विषय में बताइए।
मुझे संगीत का शौक़ है। मैंने तीन सालों तक डीजे का काम किया है। फ़ोटो-वीडियोग्राफ़ी, डिज़ाइनिंग, लेखन, कार्टूनिंग, क़ुकिंग, ड्राइविंग और ऑडियो-वीडियो एडिटिंग मुझे पसंद है। मैंने अपने ग्रेज़ुएशन के दौरान एक डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म कार्टूनपखावज में स्क्रिप्ट राइटिंग और एडिटिंग का काम किया है। सोशल नेटवर्किंग और ब्लॉगिंग मेरे पसंदीदा कामों में से एक है। ज़्यादा न पढ़ पाना मेरी बहुत बड़ी कमज़ोरी है। आपको आश्चर्य होगा, मैंने अपनी पढ़ाई को छोड़ कोई भी किताब पूरी नहीं पढ़ी है। बचपन से ही मेरी ऐसी आदत है, जिसे मैं सुधार भी नहीं पाता हूँ।
चलते-चलते अमित, मीडिया क्षेत्र में अपनी कोई रोचक घटना बताइए।
वैसे तो मेरे लिए मीडिया का हर क्षेत्र ही रोचक है। अभी मेरे ग्रेज़ुएशन के बाद का वाक़्या मुझे याद आ रहा है। मेरे ग्रेज़ुएशन के आख़िरी सेमेस्टर का आख़िरी दिन था। उसी दिन मैं राजस्थान पत्रिका, इंदौर के ऑफ़िस गया। वहां मेरा इंटरव्यू हुआ और मुझे कहा गया कि कल सुबह दस बजे से ऑफ़िस आना शुरू कर दीजिए। ऑफ़िस के पहले दिन ही मेरे कॉलेज में एनुअल फ़ंक्शन भी था। मैं अपने कॉलेज के आख़िरी दिन के बाद अपने ही कॉलेज में बतौर रिपोर्टर रिपोर्टिंग करने गया। ये मुझे बड़ा अच्छा लगा। मेरे विभागाध्यक्ष ने भी मेरे क़वरेज को सर्वश्रेष्ठ बताया। उसी दिन मेरे क़ैरियर का पहला इंटरव्यू मैंने माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय के कुलपति श्री बृजकिशोर कुठियाला का लिया। वें हमारे कॉलेज के वार्षिक उत्सव में बतौर मुख्य अतिथि पधारे थे।
अमित, आपका बहुत-बहुत धन्यवाद और भविष्य के लिए माडिया साथी डॉट कॉम की और से ढेर सारी शुभकामनाएँ !
सर, आपका भी बहुत-बहुत धन्यवाद !!