Saturday, October 30, 2010

मीडिया/Media की 'डेड-लाईन' मैनेजमेंट के फंडे मैनेज करना

अमित पाठे पवार

  2.5 करोड़ के स्तंभकार। वैसे तो कोई स्तंभों को अनमोल भी कहा जाता हैं। स्तंभ छपने के बाद उसका मोल आंकन का प्रयास किया जाता सकता है। परन्तु स्तंभ छपने के पहले ही करोड़ों के लिए अनमोल हो जाता है। इस सब को मैनेज करने के कुछ ख़ास 'फंड़े' होते है, जो एक लोकप्रिय स्तंभकार ने मुझे बताए। 

एन. रघुरामन
वरिष्ठ स्तंभकार
  फंड़ा यह है कि लोगों के लिए लिखने के पीछे भी कई समर्पण और समझौते होते हैं। लेखक, स्तंभकार या पत्रकार इन समझौतों के फंड़े को सदैव आत्मसात करते हुए इस जनसंचार के पेशे में सक्रिय होता है। दैनिक भास्कर समूह के संपादकीय बोर्ड के सदस्य से भेंट करने का अवसर प्राप्त हुआ। दैनिक भास्कर के स्थाई दैनिक स्तंभ मैनेजमेंट के फंडे के लेखक, श्री एन. रघुरामन से डीएनए (दैनिक भास्कर का प्रमुख अंग्रेजी दैनिक अख़बार) के मुंबई स्थित हेड ऑफिस पर संप्रेषण सत्र (इंट्रेक्शन) हुआ। उन्होंने पत्रकारिता के अपने कुछ फंडों से हमें अवगत करवा कर मार्गदर्शित किया।

मैं और हम सब देवी अहिल्या विश्वविधालय इंदौर के पत्रकारिता एवं जनसंचार अध्ययनशाला के विधार्थी मुंबई के शैक्षणिक भ्रमण के प्रवास पर थे। बी. ए. जनसंचार (ऑनर्स) के आखिरी सेमेस्टर में मुंबई के मीडिया, सिनेमा और इनसे जुड़े वरिष्ठ अनुभवीयों से ज्ञान और मार्गदर्शन प्राप्त करना उद्देश्य था।

  और अपनी उम्मीदों से अधिक उत्कृष्ठ साबित हुआ। दुनियादारी के मायनों के अप्रत्याशित उद्देश्यों को हमने 'बाय वन गेट वन फ्री' की तरह पाया। रघुरामन जी से डीएनए के हेड ऑफिस के संपादकीय विमर्श कक्ष (एडिटोरियल मीटिंग रूम) में संप्रेषण सत्र (इंटरेक्शन) हुआ।

  श्री रघुरामन ने कक्ष में प्रवेश किया। रोज उठकर अखबारी कागज़ पर उनकी 2x2 की फोटो देखते थे। उनको दैनिक भास्कर के उनके स्तंभ (कॉलम) 'मैनेजमेंट के फंडे' के शीर्षक (हेडिंग) पर सरसरी नज़र से देख पूरा बाचते है। आज इनसे साक्षात और प्रत्यक्ष मार्गदर्शन पाने के लिए खुशी हो रही थी। उन्होंने पाठक, प्रस्तुती, कथा कथन (स्टोरी टेलिंग) और पत्रकारिता के विभिन्न सोपानों पर विस्तृत मार्गदर्शन किया। जनसंचार पेशे (मीडिया प्रोफेशन) में उसके लिए आवश्यक प्रतिबद्धता और ईमानदारी के लिए वे बोले-   आश्यर्य होगा जानकर मेरे पिता का निधन आज से दो दिन पहले हुआ है। मैं उनके निधन के दिन की अगली सुबह डीएनए के अपने ऑफिस में अपना काम संभालने आ गया  ।  क्योंकि मुझसे मेरे 2.5 करोड़ पाठक जुड़े हैं। पत्रकारिता की 'डेड-लाईन' किसी के डेड होने पर भी डेड नहीं हो सकती। मेरे 2.5 करोड़ पाठकों के द्नारा पढ़े जाने पर यह 'डेड-लाईन' 2.5 हजार करोड़ की अहमियत रखती है।

  उनके आर्शीवचनों को हमें प्रदान कर वे पुनः अपने व्यस्त कामों में फिर व्यस्त होने चले गए, आज की डेड-लाईन का पालन (फॉलो) करने। डीएनए में चाय और स्वल्पाहार के बाद हमने उनसे प्रणाम प्रकट किया। अपनी बस में बैठे हुए मै श्री रघुरामन की बातों में खोया था। उनके पिता के निधन के अगले दिन अपने पाठकों के लिखे उस स्तंभ को, उन पाठकों ने रोज की तरह शीर्षक पर सरसरी नजर दौड़ा कर। बाच लिया होगा, बस!!

  वह स्तंभ अपने छपने से पहले वाकई बहुत ज्यादा अनमोल था। पर यही मीडिया के मैनेजमेंट का फंडा है कि क्या पाठक उस दिन के स्तंभ का मोल आंक पाए?
फंडा यह है कि मीडिया की डेड-लाईन मीडिया-कर्मियों के लिए कभी 'डेड' नहीं होती, न ही मरती है। इससे मुझे जीवन भर के लिए सीख मिली कि मीडिया में डेड-लाईन को कभी 'डेड' नहीं होना चाहिए।



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