Wednesday, April 6, 2011

मैं जेएनयू गया, वहां पर्चें बंट रहे थे जिसमें ये लिखा था-


गांजे की चीलम से निकलकर देख जालिम
सरफरोशों का वतन है यह मुर्दों का बाज़ार नहीं।

प्रियंका, सुभाष, रवि, पूजा, मनोज(जेएनयू)

दोस्तों बधाई हो.. आखिरकार 28 सालों बाद ही सही, भारत ने फिर से विश्वकप जीत लिया है। इस जीत में सभी भारतीयों ने अपना योगदान दिया है। चाहे वो घर में रहकर टीवी देखते हुए हो या स्टेडियम में पैसे खर्च कर।

जेएनयू के छात्रों ने भारतीय टीम का बढ़िया समर्थन किया। तमाम तरह की घटिया राजनीति के बाद भी वो लोग वामपंथियों के बहकावे में नहीं आये। बल्कि दुगने उत्साह और जोश-ओ-खरोश से गंगा-चंद्रभागा से लेकर ब्रम्हपुत्र हॉस्टल तक को गुंजायमान कर दिया। ये होना भी चाहिए भई। ऐसा मौका रोज-रोज थोड़े आता है? तो सभी हिंदुस्तानियों ने इस जश्न के माहौल में तह-ए-दिल से शिरकत की। टीम ने विश्व में राष्ट्र का नाम रोशन किया है इसलिए देश अपने अपने तरीके से खुश हो रहा है।

मगर विश्वकप ने जाते जाते कैंपस के छद्म वामपंथियों को अपनी ओछी राजनीति की सूखी हुई जर्जर बेजान जमीन पर बहार लाने का मौका भी दे दिया। और ये मौका है अल्पसंख्यकों में बहुसंख्यकों का अनजान डर। आखिर वामपंथियों को ये कैसे रास आता कि कैंपस के सारे धर्मों के छात्र एक साथ एक झंडे के तले आ जाए? भई, इनकी राजनीति की दुकान कैसे चलेगी फिर? हिंदू-मुस्लिम एक हो गए तो इनको कौन पूछेगा? इनकी राजनीति ही इस बात पर आधारित है कि एक पत्थर के दो टुकड़े कर दो...। उनमें आचार-विचार, रहन-सहन और मानसिक अंतर को गहरा कर दो। एक टुकड़े को दूसरे का भय दिखाओ...। फिर स्वतः वो छोटा टुकड़ा सदा के लिए बड़े टुकड़े के भय में इनके पीछे-पीछे घूमता रहेगा। कैंपस में पिछले कई सालों से यही होता रहा है। पर जब से लिंगदोह बाब ने अपनी लाठी चला दी तब से इन वामपंथियों को कोई मद्दा नहीं मिल रहा है। मगर इस गुजरे हफ्ते ने इनकी मुराद पूरी कर दी।

साबरमती-ताप्ती हॉस्टल से जब चंद हिंदुस्तानी पाकिस्तानी समर्थकों को बाहर किया तो ये बात इन्हें नागवार गुजरी। भई वो चंद पाकिस्तानी समर्थक ही तो मुसलमान थे बाकी कोई थोड़े ही थे? ये वामपंथी इस बात को सब के सामने लाना ही नहीं चाहते कि उन्हें बाहर करने वाले 6 छात्र हमारे मुसलमान भाई ही थे जिनके सीने में हिंदुस्तानी दिल धड़कता है। आखिर क्यों कोई हिंदुस्तानी पाकिस्तानी को सपोर्ट करना चाहेगा और वो भी हिंदुस्तान के खिलाफ? इन्ही चंद पाकिस्तानी समर्थकों की वजह से एक पूरी कौम बदनाम हो सकती थी। मगर नहीं, ये वामपंथी एक हिंदुस्तानी मुस्लिम को हिंदुस्तानी क्रिकेट टीम के समर्थन करते हुए नहीं देख पाते। इनकी समझ में भारतीय संविधान ने इन्हें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (Freedom of Expression) तो दिया है पर मौलिक कर्तव्य (Fundamental Duties) इन्हें पाकिस्तान की सरकार ने दी है। वो भी ये कि जिस थाली में खाओ उसी में छेद करो। ये गुण तो उन्हें विरासत में मिला हुआ है। अरे ये तो यह भी भूल जाते है कि एक कुत्ता भी इनसे वफादार होता है जो कम से कम जहां खाता है वहीं की रखवाली करता है। ना कि घर आये हुए चोरों को लालटेन दिखाता है। (1962- चीन के आक्रमण के समय ये वामपंथी इसी मुगालते में खुश हो रहे थे कि चीन इन्हें ‘liberate’ करने आ रहा है..)

अब बात करें राष्ट्रवाद और अतिवाद या अन्य..-वाद की (‘Jingoism, Exteremism or any other..-ism) की जोकि ऑस्ट्रेलिया-पाकिस्तान-श्रीलंका पर विजय प्राप्त करने के बाद हिंदुस्तानियों ने प्रदर्शित किया। अगर पूरा देश एक क्रिकेट मैच में जीत का जश्न मनाने सड़कों पर निकल जाता है तो क्या ये राष्ट्रवाद है? अतिवाद है? क्या जिस प्रकार भारत में पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाए गए वैसे पाकिस्तान में भारत जिंदाबाद कहा जा सकता है?

क्या वंदे मातरम् और भारतमाता की जय कहने मात्र से सांप्रदायिकता का खतरा मंडराने लग जाता है? क्या जय श्री राम और जो बोले सो निहाल के नारों से अल्पसंख्यकों को खतरा महसूस होने लगता है? क्या हमारा सामाजिक ढांचा इतना कमजोर है? दुनिया के सारे देशों में किसी न किसी रूप में अपनी मातृभूमि की पूजा की जाती है। हां पूजा-इबादत के तरीके अलग हो सकते है और इसमें बुरा क्या है। मगर ये भ्रमित वामपंथी भूल जाते है कि हिंदुस्तान की आबादी में हिंदू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, जैन, बौद्ध, पारसी सारे सम्मलित है। यहां दिन की शुरुआत अजान और आरती के साथ होती है। ये वो देश है जहां की बहुसंख्यक हिंदू जनता एक इसाई औरत को अपना नेता चुनती है। और वो देशहित में एक सिक्ख के हाथ में बागडोर सौंप देती है। जिसे एक मुस्लिम राष्ट्रपति शपथ दिलाते है। अतः वामपंथी जिनका खुद ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, बहुसंस्कृतिवाद, धर्मनिरपेक्ष और विपक्ष (Freedom of Expression, Multiculturalism and Opposition ) में विश्वास नहीं है। वे हम भारतीयों को सामाजिकता का पाठ ना पढ़ाए?

ये इस बात को भलीभांति जानते है कि इसकी प्रोगेसिव डेमोक्रेटिक पॉलिटिक्स और ये सारी हवाबाजी सिर्फ हिंदुस्तान मे और वो भी जेएनयू में ही चल सकती है। नॉर्थ गेट के बाहर एक अलग दुनिया है। जो इनके प्रपंचों को खूब जानती है। वहां इनके पुरेक अमेरिकन कॉर्पोरेट वर्ल्ड का अभिन्न हिस्सा बन चुके है। लेवाइज (Levis) की जींस पहनते है और हुंदई (Hyundai) की गाडियों में चलते है। और ऐसी इमारतों में काम करते है जिनकी दिवारों के पार छत्तीसगढ़-ओडिशा के आदिवासियों की चीखें नहीं पहुंच पाती है। बहुत शान से ये नक्सली आंदोलनों को अपना समर्थन देते है। कोई यह आंकड़ों में ये गिन कर बताए कि सालाना बजट 1800 करोड़ रुपए से अधिक का है इसमें उन मजलूम आदिवासियों के कल्याण के निमित्त कितने पैसे खर्चे है? कितने स्कूल बनाए है? कितनी कल्याणकारी योजनाएं बनाइ है? अब भई, ये सब तो सरकारी आरटीआइ की जद से बाहर है वरना इनके मानस-पुत्रों को भी पता चले कि जिनके पद-चिन्हों पर ये चल रहे है वहां कितना घोटाला है? सब सत्ता का खेल है भई। हाथ में सत्ता आते ही काहे के गरीब, काहे के आदिवासी?? कोई हमें बता दे कि नेपाल में माओवादियों की सरकार बने कितने समय बीत गए, कितने पिछड़े-शोषितों एवं कुचले हुए लोगों का कल्याण किया माओवादियों ने?

एक बार फिर से हम आम छात्र इन सभी कैपसवासियों का तहेदिल से शुक्रिया अदा करते है जिन्होंने तमाम वामपंथी प्रपंचों के बाद भी टीम इंडिया की हौसला अफजाइ की और जीत के बाद एक झंडे के तले आकर खुशी जाहिर की। हम अपने पथभ्रष्ट वामपंथियों का भी आव्हान करते हि कि वो चीनी गुलामी छोड़ के देश हित में सोंचे कम से कम हिंदुस्तानी नमक का हक अदा करें क्योंकि...

जो भरा नही है भावों से, जिसमें बहती रसधार नहीं।
हृदय नहीं वो पत्थर, जिसमें स्वदेश का प्यार नही।। (दिनकर)
 


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