Monday, February 28, 2011

'दिल्ली मेल' आम बजट संस्करण

'दिल्ली मेल' आम बजट संस्करण, पेज-2
संपादन- आशीष मिश्र
कार्यकारी संपादक, डिजाइनिंग, प्रस्तुती, इलेस्ट्रेशन और कार्टून- अमित पाठे



Sunday, February 20, 2011

www.mediasaathi.com- मीडिया फ्लॉवर

www.mediasaathi.com पर आया मेरा इंटरव्यू-

http://www.mediasaathi.com/catgory_other_right.php?cat=cartoon

http://www.mediasaathi.com/cat.php?id=8

 
"मीडिया साथी डॉट कॉम" के इस स्तंभ "मीडिया फ्लॉवर" में प्रस्तुत हैं मीडिया की बगिया में खिलते मीडिया फ्लॉवर्स के साक्षात्कार या उनसे संबंधित आलेख।
 

अमित पाठे- मीडिया की कच्ची मिट्टियाँ और कुशल कुंभकार की तलाश
साक्षात्कार – महेन्द्र प्रताप सिंह
“ 'मीडिया फ़्लॉवर' में हम आपकी मुलाक़ात करवा रहे हैं, आईआईएमसी के छात्र अमित पाठे से। अमित मीडिया का कोई विलक्षण छात्र तो नहीं है; किन्तु उसमें पत्रकारिता के प्रति गजब का जुनून है। बक़ौल अमित उसने अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई इसीलिए छोड़ी कि अपने मन का काम कर सके। किन्तु हमारे मुताबिक़ जो बात उसे दूसरे छात्रों से अलग करती है वह है घाघ दुनियादार होने में उसकी धीमी रफ़्तार। इस स्तंभ के लिए हमने अनेक कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के छात्र-छात्राओं को परखा। उनमें से कुछ अपने संस्थानों में हुई परीक्षाओं में मिले अंकों के आधार पर टॉपर्स थे, तो कुछ अनेक मीडिया संस्थानों के लिए कार्य कर चुके थे या कार्य कर रहे हैं। लेकिन उनमें से लगभग सभी पत्रकारिता से अधिक रफ़्तार से जो चीज़ सीख रहे हैं, वह है कुटिल दुनियादारी। अमित में यह रफ़्तार कम है। सम्पर्क किए जाने पर जहाँ दूसरों ने इस साक्षात्कार के लिए अपने नाम की ज़िद की, वहीं अमित ने निर्विकार भाव से अपने दोस्तों केशव कुमार, ददन विश्वकर्मा और गुंजन जैन के नाम की सिफ़ारिश की। फ़ेसबुक पर उसकी भाषा और व्यवहार संयत और गरिमापूर्ण है। बैतूल के छोटे से कस्बे सारनी में जन्मे अमित में किशोरावस्था से ही पत्रकारिता का जज़्बा था। पत्रकारिता में इसी रुचि के कारण उसने इंजीनियरिंग के बजाए पत्रकारिता शिक्षा प्राप्त करने की ठानी और बैतूल से इंदौर चला आया। देवी अहिल्याबाई विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में बीए(ऑनर्स) करने के बाद फ़िलहाल वह आईआईएमसी में स्नातकोत्तर डिप्लोमा कर रहा है। किंतु इतने जुनून के बाद भी अमित की कुछ भयानक कमियाँ हमारी मीडिया शिक्षा के स्तर में कमी की ओर इशारा करती हैं। अमित के साक्षात्कार के बहाने हम वर्तमान पत्रकारिता शिक्षा के स्तर की भी चर्चा करेंगे।
                                                                  - महेन्द्र प्रताप सिंह
अमित, सबसे पहले अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में बताएँ।
मैं एक मध्यमवर्गीय परिवार से हूं। मध्यप्रदेश में सतपुड़ा की वादियों के बीच बसे बैतूल ज़िले के एक कस्बे सारनी से हूँ। ये कस्बा विद्युत और कोल की नगरी के नाम से जाना जाता है। इसी कोल नगरी में कोल इंडिया की खदानें है, जिसमें मेरे पिताजी गोपीचंद पाठे एक कोयला कामगार है। मेरे पिताजी का पुस्तैनी निवास पड़ौस के ज़िले छिंदवाड़ा में है। माताजी मीना पाठे हाउस वाइफ है। परिवार में हम दो भाई और एक बहन (सबसे बड़ी) है। बहन ने बीएचएससी तक पढ़ाई की है उनकी शादी हुए चार साल हो चुके हैं। भाई ने इंदौर से बीकॉम(फॉरेन ट्रेड) तक पढ़ाई करने के बाद जीजा जी के साथ बिज़नेस में हाथ बँटाना शुरू किया है।
अपने बचपन के विषय में कुछ बताएँ।
मध्यम वर्गीय परिवार में बचपन की अपनी सीमाएँ हो जाती है। मैं पढ़ाई में अपने भाई-बहन से बेहतर था। बचपन को अमित पाठेयाद करूँ तो यही छवि बनती है कि बचपन गंभीर ही रहा। मुझे ज़्यादा खेलने में रुचि नहीं रही। मैं दसवीं तक आते-आते तक़रीबन पूरी तरह से पढ़ाकू ही रहा। मुझे कभी किसी ने शरारती नहीं कहा। मैं मिलनसार और वाक्पटु ज़रूर था। मेरी दोस्ती अपनी उम्र से बड़े लोगों से ही ज़्यादा थी। दसवीं के बाद गणित विषय ले लेने के बाद मुझे महसूस होने लगा कि ये सब मेरे लिए नहीं है। मैं किताबी कीड़ा नहीं बन पाउँगा। वहीं घर की आर्थिक स्थिति भी ऐसी नहीं थी कि अंग्रेज़ी स्कूलों में पढ़ पाता। फटी टाटपट्टी पर बैठकर अर्धसरकारी हिंदी स्कूलों में ही पढ़ पाया। पिताजी ने हमेशा अपनी हैसियत से बढ़कर पालन-पोषण किया है और यही कारण है कि आज वे दूसरों की तरह अपने बैंक बैलेंस पर दंभ नहीं भर पाते है। पर इस बात की ख़ुशी ज़ाहिर करते है कि मैंने अपनी ओर से बच्चों को अच्छे से अच्छा देने का प्रयास किया है।
आपका इंजीनियरिंग के लिए भी सिलेक्शन हो गया था। फिर क्या हुआ ?
12वीं गणित से पास करने के बाद इंजीनियरिंग करने की होड़ होती है, तो मैंने भी एमपी प्री-इंजीनियरिंग टेस्ट दे दिया। सिलेक्शन के बाद इंजीनियरिंग की काउंसलिंग में पहुँचा। कॉलेज भी आबंटित हो गया। लेकिन वहीं बैठे-बैठे सोचा- तू किताबी कीड़ा तो है नहींआगे भी रोते-रोते इंजीनियर नहीं बनना है। अब सोच लिया, बीई नहीं करना है। काउंसलिंग में नॉट इंटेरेस्टेड करवा कर वापस आ गया। मेरे पास आज भी आरजीपीवी-भोपाल में काउंसलिंग का 'नॉट इंटेरेस्टेड' सर्टिफ़िकेट रखा है। बड़ा भाई इंदौर में पढ़ रहा था। उसने वहाँ जेटकिंग में हार्डवेयर नेटवर्किंग में एडमिशन करवा दिया। लेकिन उसमें मैंने पाया, 10वीं पास भी पढ़ रहा था और 11वीं फ़ेल भी। तय किया, यहाँ भी नहीं पढ़ना है। वैसे दसवीं में अच्छे प्रतिशत के कारण मेरा प्रोडक्शन ब्रांच में राज्य में चौथा स्थान आया था। उस समय भी पिताजी आर्थिक कमज़ोरी के कारण मुझे पॉलीटेक्निक मे एडमिशन नहीं दिलवा पाए।
पत्रकारिता में आपकी रुचि कब पैदा हुई?
जब ग्यारहवी क्लास में पहुँचा तब मेरे स्कूल की फ़ीस अचानक चार गुनी बढ़ गई। ये मेरे पिताजी के लिए उस समय बड़ी रक़म थी। मेरे एक दोस्त राजू पवार (जो अब मेरे जीजा जी बन चुके हैं) के पास दैनिक जागरण की एजेंसी थी। मैंने एक ख़बर बनाई और जागरण के ज़िला ऑफ़िस भेज दी। अगले दिन ख़बर हमारे शहर के पेज की लीड बनकर आई। मैंने फ़ीस के साथ ही क्षेत्र में अच्छे स्कूलों की कमी का मुद्दा भी उठाया था। ख़बर मेरे नाम (बाईलाइन) प्रकाशित हुई। अगले दिन पूरे स्कूल में मेरी ख़बर के चर्चे थे। धीरे-धीरे मैंने नगरपालिका और पुलिस थाने तक से ख़बरें लेना शुरू कर दिया। मेरी पहचान भी बनने लगी। पत्रकारिता की ओर रुझान बढ़ गया। इसमें लग जाने के बाद पढ़ाई से दूरी बढ़ती गई और इसी कारण रिजल्ट में प्रतिशत भी गिरने लगा।
अमित पाठेजीवन में आपके क्या लक्ष्य हैं और क्या पत्रकारिता से वे पूरे हो सकेंगे?
मेरा लक्ष्य है कि मैं अपने यहाँ जाकर राज्य या ज़िला स्तर पर पत्रकारिता करूँ। इससे पहले मैं महानगर से लेकर हर स्तर पर पत्रकारिता का अनुभव पाना चाहता हूँ। अभी सभी मीडिया में जाकर अनुभव लेना चाहता हूं। बाक़ी क्षेत्रों की तरह यह क्षेत्र शायद ज़्यादा कठिन है, पर यहाँ मुझे संतुष्टि बहुत मिलती है। आपकी मेहनत का परिणाम तुरंत मिलता है। इसलिए कई क्षेत्रों को छोड़कर मैंने पत्रकारिता को चुना।
ये कब तय किया कि पत्रकारिता को कैरियर के रूप में अपनाना है?
इंजीनियरिंग में दाख़िला न लेने और तीन कोर्स में एडमिशन लेने के बाद छोड़ देने के बाद परिवार चिंतित था। उन्हें लग रहा था कि ये पढ़ाई छोड़कर क्या पत्रकारिता के भूत में लग गया है। दिन भर घूमता रहता है और घर में इतने सारे न्यूज़पेपर और मैग्ज़ीन लगवा ली हैं। उसी दौरान अख़बार में देवी अहिल्याबाई विश्वविद्यालय के पत्रकारिता और जनसंचार अध्ययनशाला का एडमिशन नोटिस देखा। मैंने फ़ॉर्म डाउनलोड करवाया, डीडी बनवाई और भेज दिया। वहाँ लिखित परीक्षा और इंटरव्यू के बाद मेरा चयन हो गया।
ग्रेज़ुएशन के बाद आईआईएमसी को क्यों चुना?
वैसे आईआईएमसी को चुनना मात्र ऐसा ही है, जैसे किसी कपड़े पर कोई बड़े ब्रांड की मुहर लग जाना। मेरेअमित पाठे आईआईएमसी में आने का भी यही एक कारण है। साथ ही मैं दिल्ली की पत्रकारिता को नज़दीक से जानना चाहता था। आईआईएमसी में आने से पहले मेरा चयन महात्मा गाँधी अन्तर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में एमए (मास मीडिया) के लिए हो गया था। आज मैं आइआईएमसी में जो विषय पढ़ रहा हूँ, उसे अपने ग्रेज़ुएशन में ही पढ़ चुका हूं। बस, वहाँ उन्नीस पढ़ा था, यहाँ की पढ़ाई इक्कीस है।
आईआईएमसी में अपने अब तक के अनुभव को बताइए।
यहाँ पढ़ाई का माहौल उम्दा है। फैक़ल्टी अनुभवी हैं। क्योंकि यह केन्द्रीय संस्थान है, इसलिए यहाँ सुविधाओं की कमी नहीं है। यहाँ की बढ़िया बात ये है कि यहाँ पढ़ाई और परीक्षा ज़्यादा व्यावहारिक है। इसका अंदाज़ा आप इस बात से लगा सकते हैं कि यहाँ मेरा पहला सेमेस्टर का एग्ज़ाम मेरा अब तक का सबसे अच्छा, हल्का-फुल्का और व्यावहारिक एग्ज़ाम था। यहाँ विषय के जानकारों को पढ़ाने के लिए बुलाया जाता है जो बढ़िया बात है। समय-समय पर अतिथि वक्ताओं से पढ़वाया जाता है। टीवी चैनलों के विभिन्न कार्यक्रमों के अनुभव के लिए भेजा जाता है। किन्तु एक बात है कि यहाँ पढ़ाई के दौरान मीडिया हाउस में इंटर्नशिप के लिए भी भेजना चाहिए।
अमित, आपके ब्लॉग पर जो लेख हैं, उनमें वाक्यों और वर्तनी की बहुत अशुद्धियाँ हैं, जबकि आप भविष्य में हिन्दी के पत्रकार बनने के इच्छुक हैं और तीन साल तक देवी अहिल्याबाई विश्वविद्यालय और क़रीब छह माह से आईआईएमसी में शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। क्या किसी प्रोफ़ेसर ने आपकी इन ग़लतियों की और ध्यानाकर्षित किय़ा या शुद्ध हिन्दी लिखने की शिक्षा दी।
जी, आप ठीक कह रहे हैं। यही तो हमारी शिक्षा पद्धति की ख़ामियों में से एक है। देवी अहिल्याबाई विश्वविद्यालय में तो शायद ही कभी किसी ने ध्यान दिलाया हो। आईआईएमसी में ये कमियाँ दूर हो सकती थीं पर यहाँ इस साल से क्लास की क्षमता दोगुनी कर दी गई है। इससे अध्यापक छात्रों पर निजी ध्यान नहीं दे पाते हैं। स्कूल के समय तो हमारी क्लास में 100 से 120 स्टूडेंट्स एक क्लास में बैठते थे। एक बैंच पर तीन की जगह चार-पाँच छात्र ठूँसे जाते थे। वहाँ भी ऐसा सौभाग्य प्राप्त नहीं हो पाया कि कोई व्यक्तिगत रूप से भाषा पर ध्यान दे सके।  ‘पत्रिका में काम करते हुए मेरे वरिष्ठों से बहुत कुछ सीखने को मिला। पर मैं सिटी सप्लीमेंट (पूल-आउट) डेस्क पर था जहाँ हिंदी पर ज़ोर नहीं दिया जाता था। वहाँ हिंग्लिश को इस्तेमाल करने पर ज़ोर दिया जाता था। मेरे डेस्क इंचार्ज श्री नितिन चावड़ा जी ने मेरा बहुत मार्गदर्शन किया।
आपके ब्लॉग में एक आलेख है आईआईएमसी में आने की जुगाड़। इसमें आपने लिखा है कि आपने पेन ड्राइव के नाम पर ठगी करने वाले एक शख़्स को आपने न केवल ख़ुद पैसा लेकर छोड़ दिया बल्कि पुलिस वालों को भी उस पैसे में से हिस्सा दिया। अमित, मैं आपको कहना चाहूँगा कि आपका ये काम अनेक तरीक़ों से न केवल अनैतिक था बल्कि एक क़ानूनी अपराध भी था। जिस ठग को गिरफ़्तार करवा के आपको उसे सज़ा दिलवाना चाहिए थी, उसे आपने पैसे लेकर जाने दिया। पैसा लेने के लिए आपने उसे ब्लैकमेल किया, साथ ही जिन रिश्वतख़ोर पुलिसकर्मियों के ख़िलाफ़ आपको लिखना चाहिए, आपने ख़ुद उन्हें रिश्वत दिलाई। क्या आपको नहीं लगता कि एक पत्रकार होने के नाते आपको जिस अनैतिकता और अपराध के विषय में आवाज़ उठाना चाहिए थी आप ख़ुद वही कर रहे हैं।     क्या आपके किसी प्रोफ़ेसर ने आपकी इस ग़लती के बारे में बताया और जीवन और पत्रकारिता में नैतिकता अपनाने के लिए प्रेरित किया?
जी बिल्कुल, आईआईएमसी में आने की जुगाड़अनैतिक, अमानवीय और आपराधिक काम था। इसके पीछे ऐसे कई कारण हो गए कि मुझे ये करना पड़ा। मैंने इस स्टोरी को करने का पूरा मन बना लिया था। मैंने फ़ोटोग्राफ़र को बुला कर फ़ोटो भी करवा लिए थे। ऑफ़िस जाने पर मेरे सीनियर ने कहा, ये क्राइम बीट की ख़बर है, मैं इसमें कुछ नहीं कर सकता। क्राइम रिपोर्टर ने इस ख़बर को लेने से इंकार कर दिया। कोई स्थापित पत्रकार एक नए-नए पत्रकार को अपने क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं करने देना चाहता। उन्होंने कई बातें बनाकर मेरी स्टोरी बनाने से इंकार कर दिया। मैं शाम को अपराधी से मिलने गया। वो रोते हुए कहने लगा कि पुलिस वाले मुझसे पाँच हजार मांग रहे हैं। मैं इतने पैसे नहीं दे सकता। मेरे साथ 'पत्रिका' के ही एक सीनियर जर्नलिस्ट भी थे। उन्होंने कहा, अमित बेटा इस छोटे-मोटे ग़रीब को क्यों परेशान करना। छोड़ दो बेचारे को, ग़रीब है,  रोज़ी-रोटी के लिए यहां कमाने आया है। वहाँ अपराधी के बुज़ुर्ग पिताजी भी आ गए। वे मेरे हाथ जोड़ने लगे। यह मुझसे देखा नहीं गया। पुलिस वाले ने मुझसे बात-बात में ही कह दिया था कि अपराधी से पैसे ले लीजिए। मैंने उसे पुलिस वालों से बचाया, वरना वे उससे पाँच हज़ार रुपए ऐंठ लेते। मुझे आईआईएमसी के इंटरव्यू के लिए जाना था और मेरे पास पैसे नहीं थे। मैंने उससे चार सौ रुपए+दो सौ रुपए लिए। दो सौ रुपए पुलिस वाले को दे दिए। इस चार सौ रुपए से मैंने दिल्ली आने जाने का किराया जुटाया, जो मेरे पास नहीं था। मैं जनरल डिब्बे में नीचे कपड़ा बिछाकर सोते हुए दिल्ली इंटरव्यू के लिए पहुँचा। माना ये गलत था, पर पुलिस वाले उससे पाँच हजार लेते, मैंने उसे बचाया।
अमित, पत्रकारिता एक ज़िम्मेदारी भरा काम है। इसका उद्देश्य महज़ सूचना देना नहीं है, बल्कि इससे बड़े सामाजिक दायित्व भी जुड़े हुए हैं। मैं चाहूँगा कि आप अपने फ़र्ज़ के प्रति हमेशा ईमानदारी और नैतिकता का पालन करें और जीवन-मूल्यों का निर्वहन करना सीखें। यह थोड़ा कठिन है, किन्तु असंभव नहीं है।    
इन उपयोगी सलाहों के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद। मैं इस पर ज़रूर ध्यान दूँगा और आगे कोशिश करूँगा कि शिकायत का मौक़ा न दूं।
अमित मैं ये बार-बार महसूस करता हूँ कि वर्तमान मीडिया शिक्षण संस्थानों में छात्रों को स्तरीय और पर्याप्त प्रशिक्षण नहीं दिया जाता। एक छात्र होने के नाते आपका क्या सोचना है और मीडिया शिक्षण के स्तर को सुधारने के लिए शिक्षण संस्थानों को क्या क़दम उठाना चाहिए?
आज हमारी मीडिया के जो हाल हैं, उसके पीछे मैं मुख्य कारण मीडिया शिक्षा में पिछड़ेपन को ही मानता हूँ। अगर अमित पाठेआज़ादी के बाद से ही हमने मीडिया शिक्षा की ओर ध्यान दिया होता तो आज हमारे मीडिया की स्थिति कहीं बेहतर होती। हमारे देश में आज भी मीडिया शिक्षा की हालत दयनीय है। विश्वविद्यालयों में एक कमरे में पत्रकारिता विभाग चल रहे है। इन विभागों में योग्य प्रोफ़ेसरों की भी आवश्यकता है। यहाँ तक कि मैं आईआईएमसी में भी कुछ अस्थाई प्रोफेसरों को अच्छा प्रोफेसर नहीं मान पाता हूँ, इससे ही आप पूरे देश के मीडिया संस्थानों की स्थिति का अंदाज़ा लगा सकते है, जबकि देश के सर्वश्रेष्ठ मीडिया संस्थान में भी बेहतर प्रोफ़ेसरों का टोटा है।
अच्छा, ये बताइए कि देवी अहिल्याबाई विश्वविद्यालय और आईआईएमसी के शैक्षणिक माहौल में कितना अंतर आपने पाया?
हम हमारी यूनिवर्सिटियों की हालत तो जानते ही हैं। दिल्ली जैसे महानगरों को छोड़ दें तो विश्वविद्यालयों की स्थिति अच्छी नहीं है। फिर भी देवी अहिल्याबाई विश्वविद्यालय की बात करें तो यहाँ पढ़ाई और माहौल बढ़िया है। ये देश के सबसे पुराने पत्रकारिता विभागों में से एक है, जिसे अब 25 वर्ष हो रहे है। देवी अहिल्याबाई विश्वविद्यालय में सुविधाएँ कम थीं। जो थीं भी, उनका सही इस्तेमाल छात्रों के हित में नहीं करवाया जाता था। वहाँ कैंपस में कुलपति को लेकर राजनीति हमेशा चलती रहती थी, जिससे विश्वविद्यालय का स्तर लगातार गिरा है।
इंदौर और दिल्ली के माहौल में कितना अंतर है?
दिल्ली और इंदौर की तुलना पिजा और पराठे की तरह है। अब आप पर निर्भर करता है कि आपको क्या पसंद आता है। माहौल में अंतर को आप इस तरह से ही देख सकते है कि दिल्ली में कैंपस में स्मोकिंग फैशन है, जबकि इंदौर में इसे ज़्यादातर घृणा की तरह ही देखा जाता है। महानगर की इस मरीचिका में कईयों की राहें भटक भी जाती हैं। पर मैंने दिल्ली आते ही अपनी बची-खुची बुरी आदतें भी छोड़ दी है।
आपके पसंदीदा प्रोफ़ेसर कौन हैं और क्यों?
देवी अहिल्याबाई विश्वविद्यालय में मेरे मीडिया क़ानून के प्रोफ़ेसर श्री आनंद पहारिया से मैं बहुत प्रभावित रहा। वे पढ़ाने में भले ही 20 नहीं थे, पर निजी मार्गदर्शन में 200 प्रतिशत थे। जो मैं मानता हूं कि आज के समय में ज़्यादा ज़रूरी है, न अमित पाठेकि किताबी ज्ञान। उन्होंने मेरे लेखन को बढ़ावा दिया, मुझसे आईआईएमसी का फ़ॉर्म भरवाया और मेरा मार्गदर्शन और हौसला अफ़जाई भी की।
मीडिया का कौन सा क्षेत्र आपको पसंद है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया या प्रिंट मीडिया?
प्रिंट मीडिया की आज भी अपनी विश्वसनीयता है साथ ही इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से छवि भी बेहतर ही है। मीडिया के कैरियर की शुरुआत प्रिंट से करने पर आपको एक आधार मिलता है। चूँकि आप लिखना सीखते है, जो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की भी पहली सीढ़ी है। प्रिंट आज भी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से ज़्यादा भरोसेमंद है। इलेक्ट्रॉनिक के मुक़ाबले प्रिंट में काम करना थोड़ा सहज है, चूँकि यहाँ आपका काम काफ़ी हद तक 24 X7 नहीं होता है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में न्यूज़ की ज़िदगी कुछ समय की ही होती है, जबकि प्रिंट में अगले अंक तक वो जीवित रहती है, कम से कम 24 घंटे तो है ही।
आप कहाँ काम करना चाहेंगे ? इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में या प्रिंट में ? तथा फ़ील्ड में या डेस्क पर ?
प्रिंट मुझे पसंद है पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में भी काम करना है। मैं तो चाहता हूं कि सभी स्तरों का अनुभव लूँ। बिना फ़ील्ड वर्क के डेस्क पर काम नहीं किया जा सकता है। शुरूआत तो रिपोर्टिंग से ही करना चाहूंगा। एक लंबे समय बाद आप इस क़ाबिल बन ही जाते हैं कि संस्थान आपको डेस्क पर नियुक्त कर ही देता है, ताकि आपके अनुभव से डेस्क टीम मज़बूत हो सके। संपादकीय ही क्या मैं तो विज्ञापन, प्रसार और प्रबंधन के क्षेत्र में भी काम करने का अनुभव लेना चाहता हूं। मुझे फ़ोटोग्राफ़ी का भी बहुत शौक़ है। आर्थिक कारणों से मैं आज तक कैमरा नहीं ख़रीद पाया और मेरे मोबाइल में भी कैमरा नहीं है। इस बात का मुझे हमेशा मलाल रहता है। ग्रेज़ुएशन में 24 विषय पढ़े हैं, जिसमें मुझे फ़ोटो जर्नलिज़्म में सबसे ज़्यादा नंबर मिले है। मैं आगे कभी फ़ोटो जर्नलिज़्म का अलग से कोर्स करना चाहता हूँ। मुझे वेब-पत्रकारिता में भी काम करना है जिसका आगे अच्छा भविष्य है।
कार्टून बनाना आपने कब से और कैसे शुरू किया?कार्टून
कार्टून बनाने की शुरुआत हुए अभी पूरा एक महीना भी नहीं हुआ है। मैं अभी इसकी पहली सीढ़ी पर ही हूँ। मेरे दोस्तों, टीचर्स आदि को मेरे कार्टून पसंद आते हैं और उनके उत्साहवर्धन से ही मैं कार्टून बनाता रहता हूँ। मुझे याद है मेरे पहले कार्टून पर नईदुनिया के संपादक जयदीप कर्णिक जी, दैनिक भास्कर के मशहूर कार्टूनिस्ट इस्माइल लहरी जी और आईआईएमसी के प्रोफ़ेसर दिलीप मंडल जी के सकारात्मक और उत्साहवर्धक कॉमेंट आए थे। इससे उत्साहित होकर मैंने कार्टून बनाना अपनी दिनचर्या में उतार लिया।
कार्टून बनाने को अपने कैरियर के रूप में चुनना चाहेंगे?
जैसा मैंने कहा कि मैं मीडिया के हर आयाम और स्तर का अनुभव चाहता हूँ इसलिए एक कार्टूनिस्ट के रूप में काम करने का मौक़ा मिलने पर ज़रूर करूँगा। अभी तो ये सोच कर ही सीख रहा हूँ कि ख़ुद की स्टोरी के लिए ख़ुद ही कार्टून भी बना लूँ, कार्टूनिस्ट की मदद लेने की ज़रूरत न पड़े। फ़ोटोग्राफ़ी सीखने का भी यही कारण है। आगे जर्नलिज़्म में मल्टीटास्किंग जर्नलिस्ट्स की आवश्यकता होगी, जो कई व्यक्ति के काम अकेले ही कर लें। इसके लिए ख़ुद को तैयार कर रहा हूं।
अमित, अपनी रुचियों और इंटरेस्ट के विषय में बताइए।
मुझे संगीत का शौक़ है। मैंने तीन सालों तक डीजे का काम किया है। फ़ोटो-वीडियोग्राफ़ी, डिज़ाइनिंग, लेखन, कार्टूनिंग, क़ुकिंग, ड्राइविंग और ऑडियो-वीडियो एडिटिंग मुझे पसंद है। मैंने अपने ग्रेज़ुएशन के दौरान एक डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म कार्टूनपखावज में स्क्रिप्ट राइटिंग और एडिटिंग का काम किया है। सोशल नेटवर्किंग और ब्लॉगिंग मेरे पसंदीदा कामों में से एक है। ज़्यादा न पढ़ पाना मेरी बहुत बड़ी कमज़ोरी है। आपको आश्चर्य होगा, मैंने अपनी पढ़ाई को छोड़ कोई भी किताब पूरी नहीं पढ़ी है। बचपन से ही मेरी ऐसी आदत है, जिसे मैं सुधार भी नहीं पाता हूँ।
चलते-चलते अमित, मीडिया क्षेत्र में अपनी कोई रोचक घटना बताइए।
वैसे तो मेरे लिए मीडिया का हर क्षेत्र ही रोचक है। अभी मेरे ग्रेज़ुएशन के बाद का वाक़्या मुझे याद आ रहा है। मेरे ग्रेज़ुएशन के आख़िरी सेमेस्टर का आख़िरी दिन था। उसी दिन मैं राजस्थान पत्रिका, इंदौर के ऑफ़िस गया। वहां मेरा इंटरव्यू हुआ और मुझे कहा गया कि कल सुबह दस बजे से ऑफ़िस आना शुरू कर दीजिए। ऑफ़िस के पहले दिन ही मेरे कॉलेज में एनुअल फ़ंक्शन भी था। मैं अपने कॉलेज के आख़िरी दिन के बाद अपने ही कॉलेज में बतौर रिपोर्टर रिपोर्टिंग करने गया। ये मुझे बड़ा अच्छा लगा। मेरे विभागाध्यक्ष ने भी मेरे क़वरेज को सर्वश्रेष्ठ बताया। उसी दिन मेरे क़ैरियर का पहला इंटरव्यू मैंने माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय के कुलपति श्री बृजकिशोर कुठियाला का लिया। वें हमारे कॉलेज के वार्षिक उत्सव में बतौर मुख्य अतिथि पधारे थे।
अमित, आपका बहुत-बहुत धन्यवाद और भविष्य के लिए माडिया साथी डॉट कॉम की और से ढेर सारी शुभकामनाएँ !
सर, आपका भी बहुत-बहुत धन्यवाद !!

Friday, February 18, 2011

देश भर की नदियों का पानी..


महानगर की आपाधापी वाली जिंदगी से कुछ मिनटों की दूरी पर। गोबर से लिपी दीवारें, उनके ऊपर घास-फूस के बने छप्पर, लोक गीतों की धुनों और ढोलक की थाप पर थिरकते कदम के साथ चौपाल में देशी सांस्कृतिक के कार्यक्रम भी। ऐसा लगता है मानो हिन्दुस्तान की आंचलिक और लोक संस्कृति जीवन्त हो, बोल उठी हो। यह दृश्य किसी गांव का नहीं बल्कि दक्षिणी दिल्ली से सटी अरावली पहाड़ियों की कंदराओं में बसे सूरजकुंड के ऐतिहासिक मेले का है। यह मेला ऐसा है जो देश-विदेश की सांस्कृतिक गतिविधियों को मंच प्रदान करता है।
यहां समूची भारतीय संस्कृति का विश्व संस्कृति से होता मिलन, दुनिया के देशों की आपसी सीमाओं और उन पर उपजे तनाव को बेमानी साबित कर रहा था। वसुधैव कुटुंबकम् की भावना को सामने देखना एक सुखद पल था। मेले में लगे विभिन्न राज्यों के स्टॉल भारत की हस्तशिल्प विरासत का झरोखा दिखा रहे थे। साथ ही संपूर्ण भारतीय संस्कृति को एक सूत्र में पिरोने के गवाह भी बन रहे थे। आंध्र प्रदेश की मुख्य थीम पर फरीदाबाद में सजा सांस्कृतिक सूरजकुंड मेला लगातार 25वें वर्ष हमारे बीच है।
ऊबड़-खाबड़ जमीन पर मिट्टी से लीपी गई झोपड़ियों के बीच रंग-बिरंगे परिधानों में घूमते लोक-कलाकार। ये एक छोटा भारत होने का भ्रम पैदा करते हैं। यही खासियत है हरियाणा के लिए अकेले साठ फीसदी राजस्व पैदा करने वाले सूरजकुंड मेले की। यहां आप मराठी धुनों पर थिरक सकते हैं, आंध्र की रामायण मण्डली को सुन सकते हैं साथ ही आइडैंटिटी कार्ड लटकाए रावण के साथ फोटो खिंचवा सकते हैं। आप अगर खाने के शौकीन हैं तो गुजराती खाखरा के साथ के साथ कुल्हड़ वाली चाय और राजस्थान की दाल-बाटी-चूरमा चट करने के बाद मटका कुल्फी का मजा ले सकते हैं।
अपने 25वें बसंत के इस अनूठे मेले की थीम है आंध्रप्रदेश। हैदराबाद, विजयबाड़ा और वारंगल से सौ से अधिक दुकानों ने राज्य के हस्त शिल्प मूर्तिकला और लजीज पकवानों से लोगों का मन मोह रहे थे। साथ ही वहां से आई कला मंडलियों ने मेले में घूम-घूमकर मेला-आगंतुकों को वहां की परंपरा एवं लोक-कलाओं से लोगों का परिचय करवाया। आगंतुकों के लिए राज्य का प्राचीन डप्पू डोस और तड़प गिल्लू नृत्य आकर्षण का केंद्र बने रहे। तेलगू भाषा से अनजान होते हुए भी उत्तर-भारतीय दर्शकों को इन कलाकारों ने अपनी भाव-भंगिमाओं और अनूठी प्रस्तुति से बांधे रखा। 
आंध्रप्रदेश पर्यटन विभाग के सहायक निदेशक जी0 राम कुट्टैया और हरियाणा सरकार के पर्यटन मंत्री ओम प्रकाश जैन मेले की सफलता को लेकर खासे उत्साहित हैं। मेले के प्रभारी राजेश जून ने बताया कि कई मामलों में यह मेला अन्य मेलों से अलग है। देश और विदेश से आये विभिन्न सैलानी पूरे भारतवर्ष की सांस्कृति छंटा को एक साथ, एक मंच पर देख सकते हैं। रामाकुट्टैया का कहना है कि इस मेले में आंध्रप्रदेश की सभ्यता, संस्कृति और ग्रामीण परिवेश को उकेरा गया है। जिसमें आंध्रप्रदेश के शाकाहारी लजीज पकवान बड़ा हिस्सा अदा कर रहे है।
दरअसल यह मेला और हस्तशिल्प दोनों एक दूसरे के पर्याय जैसे ही हैं। जिससे यह मेला अपनी रचनात्मक हस्तशिल्प सामग्री के लिए विख्यात है लेकिन पिछले कुछ सालों से हस्तशिल्प खरीददारी के प्रति लोगों का रुझान कम हो रहा है। मेले में मधुबनी चित्रकारी की एकमात्र दुकान सजाए बैठी गीता देवी पिछले छह साल से लगातार अपनी चित्रकारी के साथ मेले में शामिल होती हैं। वे कहती हैं- आई काइल लोग सब चित्रकारी के बजाय त् खूब करै छतिन् पर कोए खरीदे नय छै। (आने वाले लोग चित्रकारी की बढ़ाई तो खूब करते है पर कोई खरीदता नहीं है।) पहले से आब खर्चा बढ़ गैले ये तै लेके दामों बढ़ गैले थे।(खर्च अब पहले से बढ़ गया है इसलिए दाम बढ़ गए थे।) आब कि कहब बाबू बड़ाय से पेट ते नहिये भरै छै।(अब क्या कहे बाबू बढ़ाई से तो पेट नहीं भरता है)
वहीं दूसरी तरफ उजबेकिस्तान से आयी लीजा पहली बार भारत आकर बहुत खुश हैं। अब तो यहॉ उनके काफी दोस्त भी बन गए हैं। लीजा की तरह उनकी सहेलियों को भी भारत की संस्कृति में अपनापन महसूस होता है। सात तरह की संस्कृतियों का एक ही नृत्य में मिल जाना उजबेकिस्तान की सांस्कृतिक समृद्धता को दर्शाता है। मेले में उजबेकिस्तान आयोजन में भागीदार है इसके अलावा विभिन्न देश अपनी-अपनी कला संस्कृति की छटा बिखेरने मेले में आये हुए हैं। देशी और विदेशी संस्कृति के मिलन से इस मेले में चार चांद लग गए है।
इसी तरह सार्क देशों के स्टॉलों के बीच हस्तकृतियों की खुबसूरती को निहारती, जर्मनी से आई जेनिफर ने सूरजकुंड मेले को इनक्रिडिबल और वन्डरफुल जैसे शब्दों में बयां किया। उनका कहना था कि मैं भारत पहली बार आई हूं, लेकिन इस मेले में आकर भारत की अद्भुत संस्कृति और कला को देखकर अब मुझे लग रहा है कि मानों मैं भारत को बहुत करीब से जानती हूं। इसी संबंध में पिछले दस सालों से यहां आ रहे दिल्ली के सुरेश का कहना है कि रजत वर्ष होने के अवसर पर मेले में इस बार एक अलग ही नजारा है। इस बार सुरक्षा और पार्किंग की व्यवस्था भी पिछले सालों से बेहतर है। उनता यह भी कहना है कि मेला हस्तशिल्पियों को अपनी कला को प्रदर्शित करने का एक बेहतरीन मंच देता है।
झोपड़ियों जैसी दुकान राजस्थानी जूतियों से सजी है। खरीददारों की भीड़ के बीच दुकानदार एक साथ कई लड़कियों को जूतियों की कारीगरी और भाव बता रहा है। ज्यादातर ग्राहक आ रहे हैं,  दाम पूछ रहे हैं और आगे के स्टॉल की तरफ रुख कर ले रहे हैं। खरीदने वाले बहुत कम है। राजस्थान के दूरदराज के गांव से जूतियां बेचने आए विक्रम कहते है ‘‘ मैं पांच सालों से यहां दुकान लगा रहा हूं। ज्यादातर लोग आते हैं और मोलभाव कर चले जाते हैं जबकि शहर की बड़ी दुकानों में लोग इन्हीं जूतियों के लिए हंसी-खुशी कहीं ज्यादा रकम अदा करते हैं।
जहां एक ओर सूरजकुण्ड मेला विभिन्न राज्यों कर दुकानों से सजा था वहीं दूसरी ओर यहां पर भ्रमण करने वाले दर्शकों का उत्साह भी चरम पर था। दो सालों से सूरजकुण्ड मेला में आ रहे गाजियाबाद के कुलदीप सिंह कहते है कि इस बार बांस से बने हस्तशिल्प के सामानों में ज्यादा विविधता नजर आई। वहीं फरीदाबाद की गुंजन को मेले का आकर्षण दक्षिण भारतीय व्यंजनों का रोचक स्वाद लगा। वहीं विदेशी पर्यटकों ने में सूती कपड़ों की जमकर खरीददारी की। स्वीडन की अमांडा लुकास  कहती है कि इस मेले में पूरे भारत की झलक देखने को मिलती है। मैंने यहां पर सूती के कपड़ों की खरीददारी की जो हमारे देश में नहीं मिलता है। साथ ही बांस से निर्मित कई घरेले सामानों की खरीददारी की जिनके मूल्य काफी सामान्य ही लगे।
सारे देश के शिल्पकार यहां मौजूद हैं,  मानो देश भर के प्रांतों का पानी इस सूरजकुंड में हो पर यहां पचास रूपये की एक जलेबी भी है। आमलोगों को मेले में घूमना तो भा रहा है पर यहां भी मंहगाई डायन उनकी नाक में दम कर रही है। इस पर मेला प्रबंधन समिति के अधिकारी निरंजन दास कहते है कि यह सही है कि यहां चीजे काफी मंहगी हैं। देश के दूरदराज क्षेत्रों से शिल्पकार यहां हस्तशिल्प लेकर आए हैं। इन चीजों के दाम में बड़ा हिस्सा परिवहन खर्च का है जो चीजें मंहगी होने की बड़ी वजह है। श्री दास फिर भी मानते है कि हस्तशिल्प के कद्रदान ज्यादा दाम चुकाकर भी चीजें खरीदते है। हर आगंतुक खरीदारी न भी करे पर इस मेले में उन्हे देश की शिल्प कला और संस्कृति के दर्शन हो रहे हैं। यहां मनोरंजन के लिए भी बहुत कुछ है। इस तरह यहां हर आगंतुक के लिए कुछ न कुछ जरूर है। मेले में आए लोग पुख्ता सुरक्षा व्यवस्था से भी संतुष्ट दिखे। चप्पे-चप्पे पर कैमरे और पुलिसकर्मी है। प्रबंधन समिति ने एक उद्घोषणा केन्द्र भी बनाया जो आगंतुकों और दुकानदारों के लिए सहयोगी साबित हो रहा है।
मेले की इस चहलकदमी के दूसरी ओर सीड़ियों की शक्ल में झील के लिए चाहारदीवारी बनाकर सटाएं गऐ सफेद-पीले और काले पत्थरों के बीच झील सूख चुकी है। सूखी झील में बरसात के पानी ने अटककर जो छोटी-छोटी झीलें बनाई हैं,  वहां बच्चों का एक झुंड कागज की नावें चला रहा है। हवा ठहरे पानी में धीमे-धीमे नावों को ढकेलती है। वक्त ने ऐसे ही सूरजकुण्ड के इस मेले को पिछले पच्चीस सालों से आगे बढ़ाया है। अगले साल फिर से लोगों को इस मेले का इन्तजार रहेगा और इसका भी कि ये मेला अपना स्वर्ण वसंत भी पूरा करे।