Tuesday, September 7, 2010

हिंदी पखवाड़ा

नन्दलाल शर्मा
लो भाइयो, आ गया हिंदी पखवाडा (1sep से 15sep ) तक ,लेकिन समझ में नहीं आता क़ि जब सारे उच्च वर्ग के लोग अंग्रेजियत के पल्लू से चिपके हों तो कितनी प्रासंगिकता रह जाती है इन आयोजनों की, क्या आप मुझे बतायेगे की ये पखवाड़ा हिंदी को श्रदांजलि देने लिए आयोजित किया जाता है या जन्म दिवस मनाने के लिए...

इस समय अगर आप दिल्ली के किसी इलाके में सरकारी कार्यालयों के बगल से गुजरते होगे तो इस पखवाड़े को मनाने के लिए सरकारी अनुरोध लटका हुआ दिख जायेगा. पता नहीं कितने लोग इसका पालन करते होंगे, लेकिन एक बात तो तय है की हममें से हर कोई अपनी मातृभाषा को उसका सम्मान देने में असमर्थ है, चाहे वो इस देश का पीएम हों या प्रेसिडेंट,  इस देश के नेतागण जब भी किसी को संबोधित करते है तो अधिकतर अंग्रेजी में ही करते है मानो उन्हें हिंदी आती नहीं या देश की जनता समझती नहीं, इस देश में एक वर्ग ऐसा भी हैं जो सार्वजनिक स्थानों पर गिटिर- पिटिर अंग्रेजी बोलकर खुद को एन आर आई साबित करता है और हिंदी बोलने वालों को इस नज़र से देखता है मानो वो नाली का कीड़ा हों.

शर्म आनी चाहिए उन लोगो को जो पूरे साल अंग्रेजियत झाड़ते है लेकिन सितम्बर के पहले हफ्ते में हिंदी में काम करने को प्रोत्साहित करतें है, आज हर कोई ग्लोबल होने और खुद को एनआरआई दिखाना चाहता है. इस देश के स्टार हिंदी के सरल शब्द नही लिख पाते, इस देश की भावी पीढ़ी खुद हिंदी लिखने में असमर्थता जताती है, हिंदी के साधारण शब्दों को लिखने को कह दे तो वो आप का मुंह देखते रह जाते है.

महात्मा गाँधी के शब्दों में किसी दूसरी भाषा को जानना सम्मान की बात है, किन्तु उसे अपनी राजभाषा की जगह देना शर्मनाक, यहाँ मै एक दिलचस्प उदाहरण देना चाहूँगा..

मेरे अपने ही भारतीय जनसंचार संस्थान के व्याख्यान समारोह के बारे में,यहाँ जितने भी लोग आये सब लोग अंग्रेजी समूह के थे और अपनी बात को भी अंग्रेजी में रखा और यह कहते रहे की हिंदी जर्नलिज्म के बच्चे चिंता ना करे मै अपनी बात हिंदी में भी कहूँगा, हाँ एक बात और यहाँ के शिक्षक गण पढ़ाते तो हिंदी जर्नलिज्म के बच्चो को पर अंग्रेजी के पॉवर पॉइंट द्वारा... समझ सकते है आप उनकी विवशता.. शुक्र है उन छात्रों का जो इतनी क्षमता रखते है की वो उनकी बातो को समझ सके.. लेकिन मै इन कथनों के आगे खुद को शर्मसार और निरुतर पाता हूँ, लेकिन निराशा हुई हमें उनसे नहीं अपने संस्थान के नीति निर्धारको से जिन्होंने ऐसे लोगो को बुलाया, शायद यहाँ भी अंग्रेजियत को अपनाने की लालसा है, सड़क पर निकलिए तो हिंदी में लिखे विज्ञापनों को पढ़कर, लिखने वाले के ज्ञान पर दया आती है जो अपनी भाषा को शुद्ध नहीं लिख पाते, पिछले कुछ समय की बात है एक टीवी प्रोग्राम में देश के जाने माने स्टार महोदय को हिंदी में सिर्फ इतना लिखना था की ' क्या आप पांचवी पास से तेज़ है ' जिन्होंने कोशिश तो की पर असफल रहे, कितना मुश्किल है उनके लिए अपनी भाषा को लिखना और उनका हिंदी ज्ञान कितना हास्यापद.

श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कहा था "अंग्रेजी हमारे देश में बहु बनकर रह सकती है मां नहीं "लेकिन आज तो इसका उल्टा देख रहा हूँ, लोगो ने अपनी बहु को ही मां बना डाला है, और इस सम्बन्ध को परिभाषित करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं है.

Monday, September 6, 2010

मीडिया-मंत्रा Media mantra लो भैया..


[यह व्यंग मैंने अपने कॉलेज (एस.जे.एम.सी., दे.अ. वि.वि., इंदौर) के वार्षिक-उत्सव 'मीडिया-मंत्रा 2009' पर उस समय ही लिखा था. जिसे मैं अब अपने ब्लॉग पर लिखकर अपने उन सहपाठियों तक पहुचाना चाहता हूं. वे इसे आसानी से  खुद को जोड़ और समझ पाएंगे भी पाएंगे.]
अमित पाठे पवार.
    हाँ आओ मीडिया-मंत्रा है. मीटिंग में आओ.. मीडिया-मंत्रा है. कमेटी बनाओ.. मीडिया-मंत्रा है. परफोर्म करो.. मीडिया-मंत्रा है.

हर साल मार्च-अप्रेल में मेरे कॉलेज में यह 'मंत्र' बहुत सुनने में आता है कि- मीडिया-मंत्रा है. मीडिया-मंत्रा हमारे कॉलेज का वार्षिक-उत्सव का नाम है. लडकियों कि तरह होने वाले 'नखरों' के बाद आखिर तो यह होता ही है. डेट आगे पीछे होते-होते... दो-तीन दिन पर आकर जम ही जाती है.

अब मीडिया-मंत्रा के 'मंत्र' के लिए यजमान कौन बनेगा? पंडित कौन होगा? इस अनुष्ठान आयोजन कौन-कौन से और कैसे होंगे. भंडारे में भोजन क्या होगा? ...और 'मीडिया-मंत्रा' के विसर्जन पर डी.जे. होगा या नहीं...? ऐसे कई मंत्र भी मीडिया-मंत्रा के साथ उच्चारित होंगे ही.

लो भईया मीडिया-मंत्रा है.
आइये गणेश जी का ध्यान करें... ॐ मीटिंग से शुरुवात करते हुए पहली आहुति डालते है. पहले ये बताओ की भाई! मूसल से किसकी दोस्ती हो गई है? 'कोर्डीनेटर' कौन बन गया है! बन गए हो तो लो अब झेलो..!

मीटिंग - "देखिये, एच.ओ.डी. सर से हमने बात की है. उन्होंने इस डेट के पहले सब कुछ पूरा कर लेने को कहा है. ऑडिटोरियम इस-इस डेट को खाली है." लो! कोर्डीनेटर जी, गणेशजी का ध्यान करने से पूर्व ही त्रुटी! सब मिल कर मीडिया-मंत्रा का यजमान तो चुन लेते. कौन श्रेष्ट और वरिष्ट है. और ये ऑडिटोरियम वालो की डेट्स से क्या!? मीडिया-मंत्रा के लिए कर्मठ ज्योतिषियों से विचार कर महूर्त तो निकलना चाहिये था.

चलो छोड़ो, भागते भूत की लंगोट ही सही...! ॐ मीटिंग को आगे बढाओ...

मीटिंग - "देखिये आप एक-एक कर के अपनी ऑपीनियन दीजिये..., अरे! पहले एक को तो बोलने दीजिये. उसकी पूरी बात तो सुन लो...! नहीं, एच.ओ.डी. सर ने इसकी परमिसन नहीं देंगे. उन्होंने हमे पहले ही गाइड-लाइन दे दी है. हमें कुछ अलग करना चाहिये यह तो पहले भी हुआ था." यजमान- "उफ़! तो क्या अब यहाँ स्वयंवर करवा दे क्या?! कहाँ कोर्डीनेटर बनकर फंस गए है..."

अब मीटिंग के बाद मीडिया-मंत्रा में एक-दो फेरबदल हो जाएगा, बाकी रहेगा तो हर साल जैसा ही.
परन्तु यजमान मंत्र उच्चारण (एंकरिंग) तो मैं ही करूँगा. नहीं मै अच्छी एंकरिंग करती हूँ. झगड़ा नहीं! इसके लिए राज-ज्योतिषी (फैकेल्टी) ऑडिसन लेकर निर्णय लेंगे.

अरे यार...! मै भी कहाँ इसमें उलझ रहा हूँ! दो साल मीडिया-मंत्रा में आहुति डाल कर मैंने अपना 'पुण्य' तो कमा लिया है न! अब इन 'नए' लोगों की बारी है. अपन तो अब सन्यास लो. चूँकि सत्यनारायण कथा के अंत में हुई त्रुटी की क्षमा मांग लो तो भगवान त्रुटियाँ भूल कर खुश हो जाते है. परन्तु मेरे कॉलेज का मीडिया-मंत्रा  महान अनुष्ठान है. इसमें हुई त्रुटियों को यहाँ के लोग कभी नहीं भूलते है. मुझे अभी तक  मूसल की याद दिला देते है.

छोड़ो ये सब! अपन तो प्रसाद और भंडारा-भोजन खाकर ही बचा हुआ पुण्य भी पा लेंगे. मीडिया-मंत्रा कथा का प्रथम अध्याय यहीं समाप्त होता है.

पर याद रहे श्रद्धालुओं 'प्रयोग' (हमारा हॉउस-जर्नल) पुराण में मीडिया-मंत्रा के बारे में नवम अध्याय में वर्णित है कि मीडिया-मंत्रा में केवल प्रसादी और भंडारा-भोजन करके ही इस अनुष्ठान के सारे पुण्य प्राप्त किए जा सकते है. तो मीडिया-मंत्रा के लिए जैसे भी कर्म करो पर भंडारे का भोजन जरूर खाना. क्या पता कोई चमत्कार हो जाए और मीडिया-मंत्रा विसर्जन पर डी.जे. पर नाचने का परम आनंद प्राप्त हो जाए.

                                         ll ॐ मीडियामन्त्राय नम: ll

Friday, September 3, 2010

विभाजन प्रक्रिया के उत्प्रेरक

35 रायसनिक उत्पादों के बाद भी भाषा के आधार पर राज्यों के गठन की प्रक्रिया जारी है. जिसके सक्रिय उत्प्रेरकों से यह प्रक्रिया आगे भी जारी रह सकती है.
अमित पाठे पवार.
    भी ने एक जुट होकर देश को आज़ाद करवाया, तब हम भाषा के आधार पर बाटें हुए नही थे. आज़ादी के बाद भाषा के आधार पर राज्यों का गठन किया गया. इसका मूल यह था की सामान भाषा, बोली, संस्कृति व रहन-सहन वाले लोगों को मिलाकर बनाये गए राज्य भविष्य में अधिक सुगठित रहेंगे. भाषा के आधार पर राज्यों के गठन के विपरीत परिणाम भी हुए है. ऐसा पिछले कुछ सालों से ज्यादा देखने में आया है. भाषा के आधार पर राज्यों के गठन का फार्मूला देश के 'विघटनकारियों' ने ऐसे सीख लिया है, जैसे किसी छोटे बच्चे ने माचिस की तीली जलाना सीख लिया हो. जो खतरनाक है.

भाषा के आधार पर राज्यों के विभाजन के 'फार्मूले' की रायसानिक प्रक्रिया आज तक जारी है. 28 राज्य, 6 संघीय प्रदेश और एक राष्ट्रीय राजधानी. कुल 35 'रायसानिक उत्पादों' के बाद भी यह 'रायसानिक प्रक्रिया' ख़त्म नहीं हुई है. असल में इसे खत्म नहीं होने दे रहे है वे 'उत्प्रेरक' जो भाषावाद और प्रादेशिकता के नाम पर राज्यों का विभाजन करते है. इन उत्प्रेरकों द्वारा लगाई गई आग अभी महाराष्ट्र और तमिनाडु में लगी हुई है. इस आग की आंच सारे देश के लिए खतरा है.

अलग राज्य का गठन तो मानो एक परंपरा हो गई है. अभी भी तेलंगाना, अलग मध्यप्रदेश, विन्ध्याचल, विदर्भ और न जाने कौन-कौन से अलग राज्यों की मांगे उठ रही हैं. हर कोई अपनी भाषा के राज्य का अलग गठन चाह रहा है. इसकी सबसे सक्रिय आग तमिलनाडु में लगी हुई है, अलग राज्य तेलंगाना को लेकर.

दूसरी ओर महाराष्ट्र में भाषावाद और प्रादेशिकता को लेकर अलग ही 'ड्रामा' चल रहा है. यहाँ मनसे और शिवसेना के सौजन्य से चल रहा है. जैसे- उत्तरभारतीयों की पिटाई, महाराष्ट्र विधानसभा में हिंदी में शपथ लेने पर विधायक से बदसलूकी, टैक्सी ड्राइवर को लाइसेंस के लिए मराठी अनिवार्य होना आदि. महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना और शिवसेना राष्ट्रवादी बयां देने वालों पर खुलेआम आपत्तिजनक टिपण्णी कर उन्हें धमका रहे है. उन्हें 'देशद्रोही' कह रहे है. राजनेता, अभिनेता, खिलाड़ी, लेखक, पत्रकार या और कोई हो. इन दोनों पार्टियों ने किसी को नहीं छोड़ा है.

हमारे लोकतंत्र के संविधान से खिलवाड़ करने वाली इन पार्टियों के खिलाफ सरकार और विपक्ष को कड़े कदम उठाने चाहिये. परन्तु पार्टियाँ अपने गठबंधन और राजनितिक लाभ के कारण देश में भाषाई-विवाद और राज्यों के विभाजन की आग से अपनी राजनीतिक रोटियां सेक रही है. हमें राज्यों के विभाजन की प्रक्रिया के सभी उत्प्रेरकों को निष्क्रिय कर नष्ट करना होगा. प्रादेशिकता और विभाजन के इस बबूल के पौधे को जड़ से उखाड़ फेंकना होगा, अन्यथा इसके कांटें हमारे देश को भविष्य में भी चुभते रहेंगे.