Saturday, January 22, 2011

किताबों से सच्ची दोस्ती में खाई



वो सच्ची दोस्त है पर मैं कभी उसे अपना हमसाथी नहीं बना सका। बनाता भी कैसे? बचपन से ही उससे करीबी रिश्ता नहीं बन पाया। किताबें हमारी सच्ची दोस्त होती है पर किताबों से आजतक भी मेरी पक्की, निरंतर और सक्रिय दोस्ती नहीं बन पाई। कारण वही कि हमारे बीच एक गहरी खाई रही। ये खाई उस महत्वपूर्ण दौर में रही जब हमारी प्रकृति लचीली और विकासशील रहती है। आज जब मैं अपने कॉलेज आइआईएमसी में लगे पुस्तक प्रदर्शनी में गया, तब मैंने किताबों से दोस्ती और जुड़ाव में कमी महसूस की। इसका कारण कुरेदना चाहा कि आखिर ऐसा क्यों....?

मैं स्कूल में था। टाटपट्टी वाले स्कूल में। जहां टाटपट्टियां भी फटी ही होती थी। मम्मी-पापा ने हिन्दी स्कूल को ही प्राथमिकता दी थी। क्योंकि उस समय वहां आज की तरह अंग्रजी में पढ़ने का ‘चलन’ नहीं था। मम्मी साक्षर है पापा नहीं। उन्होंने अपनी ओर से हमारी अच्छी शिक्षा और पालन-पोषण के भरपूर प्रयास किए है। जब मुझमें समझदारी आई तो महसूस हुआ कि अंग्रेजी स्कूल में पढ़ना ज्यादा अच्छा है। वहां किताबें ज्यादा अच्छी पढ़ाई जाती है।

यह समय आते-आते देर हो चुकी थी। अब तो हिन्दी किताबें ही पढ़नी थी। पापा कोयला खदान में मजदूर है। इसलिए महंगी अंग्रेजी किताबों वाले स्कूल में पढ़ाना उनके लिए आर्थिक रूप से भी संभव न था। हम दो भाई एक बहन है। सिर्फ दीदी के लिए नई किताबें खरीदी जाती थी। दीदी के बाद भईया और फिर मैं भी उन्हीं किताबों से पढ़ते थे।

पापा के पास पुश्तैनी धन भी नहीं है। दादाजी का पेशा किसानी ही है। पापा का कभी ‘इन’ किताबों से वास्ता नहीं हुआ। किताबें पढ़ने के लिए स्कूल में उनका नाम तो दर्ज हुआ था पर दूसरे के खेत में बंधुआ मजदूरी करनी पडती थी तो.... कभी उनका किताबों से क, ख, ग... भी नहीं पढ़ा। पर अपने बच्चों को अपने सामर्थ्य कहीं ज्यादा पढ़ा रहे है। आय का एक मात्र साधन कोयला खदान की नौकरी, उन्हें अपने बच्चों को महंगी अंग्रेजी किताबों वाले स्कूल में पढ़ाने में असमर्थ कर देती थी। तो हमने हमारी हिन्दी भाषा की किताबें ही पढ़ी।

हाईस्कूल तक घर में कभी कोई अखबार, पत्रिका या कॉमिक्स नहीं आई। तो नॉवेल और बाकी साहित्य तो दूर की कौड़ी थी। उस समय तक तो सिर्फ स्कूल की उन्हीं हिन्दी की किताबों से वास्ता रहा जो मध्य प्रदेश पाठ्यपुस्तक निगम की थी। और ये किताबें मेरे जन्म के समय से हाईस्कूल में पहुंचने तक नहीं बदली थी। निहायती नीरस और गुजरे समय की ये किताबें कभी मेरी सच्ची दोस्त नहीं बन सकी।

मैं कॉलेज में जनसंचार की पढ़ाई करने देवी अहिल्या विश्वविधालय इंदौर गया। बहुत सुन रखा था किताबों के ‘मंदिर’ लाइब्रेरी के बारे में यहां जीवन में पहली बार लाइब्रेरी का मुंह देखा। किताबों की इस दुनिया में किताबें और मैं एक-दूजे को अजनबी महसूस कर रहे थे क्योंकि हम दोनों का कभी ‘ठीक से’ परिचय नहीं हुआ था।

लाइब्रेरी की किताबों से परिचय करना शुरू किया। पर मैं अंग्रेजी किताबों से कोशिशों के बाद भी दोस्ती नहीं कर पाया। वजह थी हमारे बीच भाषा की खाई। बचपन से अब तक से बिल्कुल उलट इंसानों से दोस्ती के इतर किताबों को सच्ची दोस्त बनाने की भरसक कोशिशें की। पर बचपन की आदतें जाते-जाते ही जाती है। अंग्रेजी किताबों से ‘दोस्ती’ न हो पाते देख हिन्दी किताबों को अपने करीब लाया। किताबों को अपना ठीक-ठाक दोस्त बना लिया।

पीजी करने दिल्ली आया। तब आइआईएमसी की लाइब्रेरी में मेरी नई-नई दोस्त ‘हिन्दी किताबों’ की गिनती बहुत कम पाई। जो थी वो लाइब्रेरी में एक तरफ चुपचाप दुबके हुए थी। मैंने इन किताबों से अपनी दोस्ती को आगे बढ़ाया। पर इस दौरान पता चला कि हिन्दी और अंग्रेजी किताबों की दोस्ती में बड़ा अंतर है। हिन्दी किताबों से दोस्ती किसी पांचवी पास व्यक्ति से दोस्ती की तरह है। जबकि अंग्रेजी किताबों से दोस्ती किसी पीएचडी किए व्यक्ति से दोस्ती के बराबर है।

आज जब मैं आइआईएमसी के पुस्तक मेले में खड़ा था अपने आप को अजनबीयों के बीच पा रहा था। मेरी दोस्त हिन्दी किताबें यहा भी एक तरफ चुपचाप दुबके हुए थी। वहीं अंग्रेजी की किताबें सर उठाकर दंभ भर रही थी।

मैंने प्रदर्शनी में चारों तरफ नजर घुमाई और प्रदर्शनी के हॉल से बाहर आ गया। मेरे मन में ये विचार कौंध रहा था कि मेरी हिन्दी विश्व में तीसरी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है। पर निराशा की बात है कि लाइब्रेरी में मेरा दोस्त हिन्दी किताबों की संख्या दयनीय स्तर तक कम है। और वे वहां चुपचाप दुबके हुए ही रहती है।

हालांकि मैं हिन्दी किताबों को अपना सच्चा दोस्त नहीं बना पाया हूं। पर हमारी दोस्ती समय के साथ गहरी और सच्ची होती रही है। अब साथ ही साथ मैं अंग्रेजी किताबों से भी संवाद करना चाहता हूं ताकि वो मुझे बिल्कुल अजनबी ना लगे। आशा करता हूं मेरी सच्ची दोस्त हिन्दी किबातों की संख्या तेजी से बढ़े। मेरी हमसाथी के साथ मेरी दोस्ती सच्ची, निरंतर और सक्रीय रहे।

No comments: