Journalist by nature. Occasional FBवाला writer, rarely photographer, 6 day designer & one day Bachelor.
Monday, January 31, 2011
Saturday, January 29, 2011
Tuesday, January 25, 2011
Saturday, January 22, 2011
किताबों से सच्ची दोस्ती में खाई
मैं स्कूल में था। टाटपट्टी वाले स्कूल में। जहां टाटपट्टियां भी फटी ही होती थी। मम्मी-पापा ने हिन्दी स्कूल को ही प्राथमिकता दी थी। क्योंकि उस समय वहां आज की तरह अंग्रजी में पढ़ने का ‘चलन’ नहीं था। मम्मी साक्षर है पापा नहीं। उन्होंने अपनी ओर से हमारी अच्छी शिक्षा और पालन-पोषण के भरपूर प्रयास किए है। जब मुझमें समझदारी आई तो महसूस हुआ कि अंग्रेजी स्कूल में पढ़ना ज्यादा अच्छा है। वहां किताबें ज्यादा अच्छी पढ़ाई जाती है।
यह समय आते-आते देर हो चुकी थी। अब तो हिन्दी किताबें ही पढ़नी थी। पापा कोयला खदान में मजदूर है। इसलिए महंगी अंग्रेजी किताबों वाले स्कूल में पढ़ाना उनके लिए आर्थिक रूप से भी संभव न था। हम दो भाई एक बहन है। सिर्फ दीदी के लिए नई किताबें खरीदी जाती थी। दीदी के बाद भईया और फिर मैं भी उन्हीं किताबों से पढ़ते थे।
पापा के पास पुश्तैनी धन भी नहीं है। दादाजी का पेशा किसानी ही है। पापा का कभी ‘इन’ किताबों से वास्ता नहीं हुआ। किताबें पढ़ने के लिए स्कूल में उनका नाम तो दर्ज हुआ था पर दूसरे के खेत में बंधुआ मजदूरी करनी पडती थी तो.... कभी उनका किताबों से क, ख, ग... भी नहीं पढ़ा। पर अपने बच्चों को अपने सामर्थ्य कहीं ज्यादा पढ़ा रहे है। आय का एक मात्र साधन कोयला खदान की नौकरी, उन्हें अपने बच्चों को महंगी अंग्रेजी किताबों वाले स्कूल में पढ़ाने में असमर्थ कर देती थी। तो हमने हमारी हिन्दी भाषा की किताबें ही पढ़ी।
हाईस्कूल तक घर में कभी कोई अखबार, पत्रिका या कॉमिक्स नहीं आई। तो नॉवेल और बाकी साहित्य तो दूर की कौड़ी थी। उस समय तक तो सिर्फ स्कूल की उन्हीं हिन्दी की किताबों से वास्ता रहा जो मध्य प्रदेश पाठ्यपुस्तक निगम की थी। और ये किताबें मेरे जन्म के समय से हाईस्कूल में पहुंचने तक नहीं बदली थी। निहायती नीरस और गुजरे समय की ये किताबें कभी मेरी सच्ची दोस्त नहीं बन सकी।
मैं कॉलेज में जनसंचार की पढ़ाई करने देवी अहिल्या विश्वविधालय इंदौर गया। बहुत सुन रखा था किताबों के ‘मंदिर’ लाइब्रेरी के बारे में यहां जीवन में पहली बार लाइब्रेरी का मुंह देखा। किताबों की इस दुनिया में किताबें और मैं एक-दूजे को अजनबी महसूस कर रहे थे क्योंकि हम दोनों का कभी ‘ठीक से’ परिचय नहीं हुआ था।
लाइब्रेरी की किताबों से परिचय करना शुरू किया। पर मैं अंग्रेजी किताबों से कोशिशों के बाद भी दोस्ती नहीं कर पाया। वजह थी हमारे बीच भाषा की खाई। बचपन से अब तक से बिल्कुल उलट इंसानों से दोस्ती के इतर किताबों को सच्ची दोस्त बनाने की भरसक कोशिशें की। पर बचपन की आदतें जाते-जाते ही जाती है। अंग्रेजी किताबों से ‘दोस्ती’ न हो पाते देख हिन्दी किताबों को अपने करीब लाया। किताबों को अपना ठीक-ठाक दोस्त बना लिया।
पीजी करने दिल्ली आया। तब आइआईएमसी की लाइब्रेरी में मेरी नई-नई दोस्त ‘हिन्दी किताबों’ की गिनती बहुत कम पाई। जो थी वो लाइब्रेरी में एक तरफ चुपचाप दुबके हुए थी। मैंने इन किताबों से अपनी दोस्ती को आगे बढ़ाया। पर इस दौरान पता चला कि हिन्दी और अंग्रेजी किताबों की दोस्ती में बड़ा अंतर है। हिन्दी किताबों से दोस्ती किसी पांचवी पास व्यक्ति से दोस्ती की तरह है। जबकि अंग्रेजी किताबों से दोस्ती किसी पीएचडी किए व्यक्ति से दोस्ती के बराबर है।
आज जब मैं आइआईएमसी के पुस्तक मेले में खड़ा था अपने आप को अजनबीयों के बीच पा रहा था। मेरी दोस्त हिन्दी किताबें यहा भी एक तरफ चुपचाप दुबके हुए थी। वहीं अंग्रेजी की किताबें सर उठाकर दंभ भर रही थी।
मैंने प्रदर्शनी में चारों तरफ नजर घुमाई और प्रदर्शनी के हॉल से बाहर आ गया। मेरे मन में ये विचार कौंध रहा था कि मेरी हिन्दी विश्व में तीसरी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है। पर निराशा की बात है कि लाइब्रेरी में मेरा दोस्त हिन्दी किताबों की संख्या दयनीय स्तर तक कम है। और वे वहां चुपचाप दुबके हुए ही रहती है।
हालांकि मैं हिन्दी किताबों को अपना सच्चा दोस्त नहीं बना पाया हूं। पर हमारी दोस्ती समय के साथ गहरी और सच्ची होती रही है। अब साथ ही साथ मैं अंग्रेजी किताबों से भी संवाद करना चाहता हूं ताकि वो मुझे बिल्कुल अजनबी ना लगे। आशा करता हूं मेरी सच्ची दोस्त हिन्दी किबातों की संख्या तेजी से बढ़े। मेरी हमसाथी के साथ मेरी दोस्ती सच्ची, निरंतर और सक्रीय रहे।
Thursday, January 20, 2011
Wednesday, January 19, 2011
Monday, January 17, 2011
Tuesday, January 11, 2011
कार्टून- बड़े आदमी का खत
पहले सेमेस्टर के बाद कॉलेज की छुट्टियां हुई। सेमेस्टर एग्जाम से पहले मेरे कॉलेज आइआईएमसी ने हमारी क्लास में उपस्थिति के प्रतिशत की जानकारी का लेटर हमारे घर भेजा। मैं जब घर गया तो घरवालों ने कहा- 'ये क्या है रे? कॉलेज क्यों नहीं जाता है, तेरी क्लास में उपस्थिति कम है।' पापा ने कहा- 'यही नाम कर रहा है क्या दिल्ली जाकर! हमें तुम्हारे कॉलेज के प्रोफेसर डॉ. आनंद प्रधान का लेटर आया था।'
मैंने कहा- कहां है लेटर? मैंने उत्सुकता और खुशी के साथ लेटर पढ़ा और घरवालों से कहा- आपको तो लेटर पाकर खुश होना चाहिए! एक तो अरसे बाद कोई लेटर आया है। इतने बड़े आदमी ने आपको लेटर लिखकर आपके सकुशल होने की खैर-खबर ली। इतने दिनों बाद लेटर पढ़कर तो आपको खुश होना चाहिए। मेरे कारण एक तो आपको लेटर आया और वो भी इतने बड़े आदमी का। भारतीय डाक वालों का भी भला हुआ, वरना आजकल डाक से कितने कम लेटर भेजता है कोई।
Monday, January 10, 2011
यारों... जी भर के जी ले पल!
हम दोस्ती-यारी की बड़ी दुहाई देते है, स्कूल से लेकर कॉलेज के दिनों तक। पर हम इस दोस्ती को कितना दुरुस्त रख पाते है? सोचने वाली बात है। स्कूल में सालों साथ पढ़ने के बाद हम 7-8 दोस्तों का ग्रुप इंदौर में कॉलेज की पढ़ाई करने गए। यहां एक ही शहर में रहते हुए भी हम कभी नहीं मिलते थे। जबकि स्कूल के समय बड़ी-बड़ी बातें करते थे कि हम मिला करेंगे, ऐसा करेंगे...वैसा करेंगे...। पर आखिरकार एक शहर में होकर भी हम पुराने ‘दोस्त’ कभी नहीं मिलते। इंदौर आने के एक-दो महिनों में ही फोन पर बात करना भी लगभग बंद हो गया। स्कूल के समय दोस्ती रहते हुए किए गए सारे वादें धरे रह गए। यहां तक कि छुट्टियों में घर पहुंचने पर भी एक-दूसरे की खैर-खबर नहीं लेते है। कभी कहीं सामना हो जाए फिर तो मिल ही लेते है।
फिर इंदौर में ग्रेजुएशन के दौरान तीन साल जिन दोस्तों के साथ बिताए अब वे दोस्त भी दिल्ली में है, और मैं भी हूं। एक ही शहर में रहते हुए हम सातों दोस्त आज सात महिनों से नहीं मिले। अब पीजी कर रहा हूं। सोच लिया हे दोस्ती मे कोई कोरे वादें और बड़ी-बड़ी बातें नहीं करूंगा न सुनुंगा। जो वर्तमान समय है उसी में दोस्ती यथासंभव ठीक से निभाउंगा। आगे क्या क्या करूंगा, क्या होगा इसके बारे में इसके कोई कोरे वादें दोस्तों से स्वीकार नहीं करूंगा। यही अच्छा रहेगा।
भई, कोरे वादें, मुगालते और बड़ी-बड़ी बातें करने से ही दोस्ती बड़ी नहीं हो जाती है। मेरे हिसाब से दोस्ती की साथर्कता और सफलता वर्तमान समय में दोस्ती को यथासंभव ठीक से निभाने में ही है। बड़ी-बड़ी बातें, कोरे वादें और दिखावे से दोस्ती का वर्तमान तो कमजोर रहता ही है और भविष्य में भी दोस्ती बने रहने की गुंजाइश खत्म हो जाती है। इसलिए यारों... जी भर के जी ले पल!
21 दिसंबर और वही मोबाइल नंबर
मुझे जब से याद है मैं एक ही लड़की से प्यार करता था। पहला और सच्चा प्यार, ये प्यार बड़ा 'खतरनाक' तरह का होता है। शायद इसका असर जि़ंदगी भर के लिए रह जाता है। मुझे स्कूल के समय से ही वो पसंद थी और वो भी मुझे पसंद करती थी। स्कूल में पढ़ने के दौरान ही हम दोनों ने अलग-अलग स्कूल में एडमिशन ने लिया और हम अलग हो गए। 5-6 साल तक हमारे बीच कोई संपर्क नहीं रहा पर मेरे अंदर का प्यार वैसे ही रहा।
एक दिन उसका फोन मेरे मोबाइल पर आया, हमारी काफी बातें हुई। बातों का सिलसिला बहुत बढ़ गया, अब हम घंटों फोन पर बतियाने थे। उसने बताया कि वो भी मुझे पसंद करती थी पर कभी कह नहीं पाई। मैंने भी अपने दिल की सारी बातें उसे बताई। मैंने उसे प्यार का प्रस्ताव दिया उसने कभी ना नहीं कहा पर कभी हां भी नहीं कहा। उसका कोई स्पष्ट जवाब न मिलते देख मैंने अब इसे दोस्ती तक ही सीमित रहने दिया।
इसके बाद कई बार फोन पर बातें हुई। उसके बर्थडे पर मिलने भोपाल गया जहां हमने साथ लंच किया और मैंने गिफ्ट दिया। फिर उसके बारे में मुझे मेरे दोस्तों से कुछ बातें पता चली। एक दिन मैंने उसे फोन पर कुछ बातें कह दिया और तब से हम दोनों की बीच बात बंद हो गई। उसका नंबर भी बदल गया। मैंने उसे ऑर्कुट-फेसबुक पर भी ढूंढ़ा पर वो ना मिली। हालांकि मैं उसका मोबाइल नंबर पता कर सकता था पर मैंने जानबूझ कर ही एैसा करने की कोशिश नहीं की। क्योंकि मेरा तो आज भी वही मोबाइल नंबर चालू है जिस पर हम घंटों बातें करते थे..।
बात हुए 3 साल हो चुके है पर ये 3 साल एक दशक की तरह लगते है। मैं कहीं न कहीं उसे आज भी 'प्यार' करता हूं। 21 दिसंबर को उसका बर्थडे हमेशा याद रहता है..।
जब हम 12वीं में थे एक ही ट्यूशन में पढ़ने पहुंचे। मैंने लंबे समय बाद उसे देखा। 8-9 महिनें साथ ट्यूशन पढ़ने के बाद भी हमने कभी बात नहीं की। हालांकि मैंने उसे उसके बर्थडे पर गिफ्ट दिया और हाथ मिलाया। पहली और आखिरी बार उसे छुआ। 12वीं पास होने के बाद वो इंजीनियरिंग करने भोपाल चली गई और मैं मास कम्यूनिकेशन करने इंदौर चला गया।
एक दिन उसका फोन मेरे मोबाइल पर आया, हमारी काफी बातें हुई। बातों का सिलसिला बहुत बढ़ गया, अब हम घंटों फोन पर बतियाने थे। उसने बताया कि वो भी मुझे पसंद करती थी पर कभी कह नहीं पाई। मैंने भी अपने दिल की सारी बातें उसे बताई। मैंने उसे प्यार का प्रस्ताव दिया उसने कभी ना नहीं कहा पर कभी हां भी नहीं कहा। उसका कोई स्पष्ट जवाब न मिलते देख मैंने अब इसे दोस्ती तक ही सीमित रहने दिया।
इसके बाद कई बार फोन पर बातें हुई। उसके बर्थडे पर मिलने भोपाल गया जहां हमने साथ लंच किया और मैंने गिफ्ट दिया। फिर उसके बारे में मुझे मेरे दोस्तों से कुछ बातें पता चली। एक दिन मैंने उसे फोन पर कुछ बातें कह दिया और तब से हम दोनों की बीच बात बंद हो गई। उसका नंबर भी बदल गया। मैंने उसे ऑर्कुट-फेसबुक पर भी ढूंढ़ा पर वो ना मिली। हालांकि मैं उसका मोबाइल नंबर पता कर सकता था पर मैंने जानबूझ कर ही एैसा करने की कोशिश नहीं की। क्योंकि मेरा तो आज भी वही मोबाइल नंबर चालू है जिस पर हम घंटों बातें करते थे..।
बात हुए 3 साल हो चुके है पर ये 3 साल एक दशक की तरह लगते है। मैं कहीं न कहीं उसे आज भी 'प्यार' करता हूं। 21 दिसंबर को उसका बर्थडे हमेशा याद रहता है..।
Saturday, January 8, 2011
Friday, January 7, 2011
जिन्दगी है मॉं
डॉ. सोना सिंह, इन्दौर
दूसरे जीवन को जन्म देना एक ईश्वर की तरह है। मॉं बनना किसी भी औरत का दूसरा जन्म होता है। लेकिन इस दूसरे जन्म के बारे में कितनी महिलाएं वैसे ही सोच पाती है जैसा महान उसे माना जाता है। जन्म देने के लिए होने वाली पीड़ा और यातना सहकर भी एक तप की तरह इस कार्य के लिए खुद को तैयार करना मात्र संतति उत्पत्ति नहीं है।
कहते है कि मॉं भूखी रहकर भी बच्चे का ध्यान रखती है। वह खुद सोना भूल जाती है पर अपने बच्चे को सुलाने में अपनी रातें तमाम करती है। मॉं धरती पर भगवान का रूप है, यह सिर्फ सुना था। लेकिन मॉं होना और अपने पास मॉं का होना एक ऐसा एहसास है जिसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है जिया जा सकता है। मेरे जीवन में मॉं का स्थान इस बात का विवरण देने की बजाय यह कहना ज्यादा सही होगा कि मेरा जीवन ही मॉं का है। यह एक ऐसा वरदार है जिसे पाना और सहेजकर रखना एक व्रत की तरह है।
आज मैं जीवन के इस सुखद पद को पा चुकी हूं तो लगता है कि मॉं होना मुश्किल है। दूसरे के जीवन को बनाना, उसे इस दुनिया में लाना और फिर उसकी सेहत के बारे में सोचना ही एक काम होता है। मॉं होना दुनिया का एक ऐसा मुश्किल काम है जिसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है। आज मदर्स डे पर मैं जबकि खुद मॉं बन चुकी हूं पर अपनी मॉं के बारे में सिवाय सोचने के और कुछ कर नहीं पा रही हूं। स्वयं मॉं बनने पर मुझे एहसास हुआ मेरी मॉं, सास, बहन, भाभी के दर्द का जो मुझे सिर्फ एक मुस्कान के रूप में ही आज तक दिखाई देता रहा है।
क्योंकि मॉं को उपहार देने से, प्यार देने से, ध्यान देने से ममत्व का कर्ज नहीं चुका सकता। इसके लिए मेरे जैसे कितने जीवन लग सकते हैं। ममत्व एक अनुभव है जो सिर्फ जीने पर किया जा सकता है। मैं मदर्स डे पर उन सभी माताओं को भी शत्-शत् प्रणाम करती हॅूं जिन्होंने अपना जीवन अपनी संतानों के लिए होम कर दिया।
दूसरे जीवन को जन्म देना एक ईश्वर की तरह है। मॉं बनना किसी भी औरत का दूसरा जन्म होता है। लेकिन इस दूसरे जन्म के बारे में कितनी महिलाएं वैसे ही सोच पाती है जैसा महान उसे माना जाता है। जन्म देने के लिए होने वाली पीड़ा और यातना सहकर भी एक तप की तरह इस कार्य के लिए खुद को तैयार करना मात्र संतति उत्पत्ति नहीं है।
कहते है कि मॉं भूखी रहकर भी बच्चे का ध्यान रखती है। वह खुद सोना भूल जाती है पर अपने बच्चे को सुलाने में अपनी रातें तमाम करती है। मॉं धरती पर भगवान का रूप है, यह सिर्फ सुना था। लेकिन मॉं होना और अपने पास मॉं का होना एक ऐसा एहसास है जिसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है जिया जा सकता है। मेरे जीवन में मॉं का स्थान इस बात का विवरण देने की बजाय यह कहना ज्यादा सही होगा कि मेरा जीवन ही मॉं का है। यह एक ऐसा वरदार है जिसे पाना और सहेजकर रखना एक व्रत की तरह है।
आज मैं जीवन के इस सुखद पद को पा चुकी हूं तो लगता है कि मॉं होना मुश्किल है। दूसरे के जीवन को बनाना, उसे इस दुनिया में लाना और फिर उसकी सेहत के बारे में सोचना ही एक काम होता है। मॉं होना दुनिया का एक ऐसा मुश्किल काम है जिसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है। आज मदर्स डे पर मैं जबकि खुद मॉं बन चुकी हूं पर अपनी मॉं के बारे में सिवाय सोचने के और कुछ कर नहीं पा रही हूं। स्वयं मॉं बनने पर मुझे एहसास हुआ मेरी मॉं, सास, बहन, भाभी के दर्द का जो मुझे सिर्फ एक मुस्कान के रूप में ही आज तक दिखाई देता रहा है।
क्योंकि मॉं को उपहार देने से, प्यार देने से, ध्यान देने से ममत्व का कर्ज नहीं चुका सकता। इसके लिए मेरे जैसे कितने जीवन लग सकते हैं। ममत्व एक अनुभव है जो सिर्फ जीने पर किया जा सकता है। मैं मदर्स डे पर उन सभी माताओं को भी शत्-शत् प्रणाम करती हॅूं जिन्होंने अपना जीवन अपनी संतानों के लिए होम कर दिया।
(लेखिका देवी अहिल्या विवि में अध्यापिका है)
Wednesday, January 5, 2011
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