Saturday, December 14, 2013

अब तुम वॉट्सएप पर कहीं मिल जाओ


निशातगंज रेलवे फाटक और जाड़े की सुबह। गुलाबी ठंड के बीच तुम्हे पहली बार देखा था। तब, जब साइकिल से स्कूल जाना टशन की बात होती थी। रेलवे फाटक बंद हो रहा था मैं इस ओर था और तुम सब्जी मंडी की ओर। मेरी नजर तुम पर पड़ी। तुम गेट के बिल्कुल पास थी। स्कूल यूनिफॉर्म पहनी हुई थी। तुम्हारी स्याह आंखों की चमक रेलवे फाटक के इस ओर भी दिख रही थी। इस दीदार की बेला के बीच वहां से गुजर रही ट्रेन ने सीटी बजाई। मेरे दिल में भी कहीं प्यार की सीटी बज गई। दीदार की इस बेला के बीच अब ट्रेन की बोगियों की बेला गुजरना शुरू हुई। अब दीदार के बीच बोगियों की दीवार आने लगी थी। मैं बोगी के बीच से मिलने वाली तुम्हारी क्षणिक झलक भी आंखों में समा रहा था। बोगियों की लड़ी वहां से गुजर गई। लेकिन मेरा फोकस तो तुम्हारे चेहरे पर ही था।  फिर हमारी नजरों का गठबंधन हुआ। रेलवे फाटक के खुलने का सायरन बजा। और तुमने साइकिल के पैडल पर अपने पैर धरकर रेलवे ट्रैक पार किया। ट्रैफिक चल पड़ा लेकिन मेरे पैर तो मानो न्यूट्रल हो गए थे। बस मेरी आंखें दीदार में ही मस्त थीं। मेरे पीछे खड़े एक बाइक वाले खूसट अंकल हॉर्न भनभनाया और बोले- ‘अभी भी नींद हिए में हो का बाबू?’ ये देख तुम मुझपर हंसी और तिरछी नजर से देखते हुए आगे निकल गई। महीनों बाद तुम फिर वहीं और उसी वक्त दिखी। मैंने साइकिल को उसकी फ्रेम से उठाकर तुम्हारी वाली रोड लेन पर रख दिया। तुम हैरानी से मुझे देखती हो और अपनी मुस्कान दबाने की नाकाम कोशिश करती हो। मैं तो साइकिल के पैडल पर पैर रखकर तैयार था कि तुम आओगी और मैं तुम्हारे पीछे चल दूंगा। तुम फैजाबाद रोड की ओर मुड़ी और मैंने साइकिल बराबर में लाकर कहा, ‘साइकिल को रॉकेट बना दोंगी क्या? नाम तो बता दीजिए ना...’ तुम बोली- ‘पढ़ना नहीं आता साइकिल के पीछे लिखे तो हैं।’ पैडल धीमा किया साइकिल पर नाम लिखा था- ‘फरज़ाना’। एग्जाम के बाद हम दोनों के समर वेकेशंस लैंड लाइन फोन पर बतियाते ही बीते। फिर इस कंबख्त इस मोबाइल फोन ने हमारे लैंड लाइन फोन कांट दिया जिससे हमारी बातों और दिल का कनेक्शन भी कट गया। काश! अब तुम वॉट्सएप पर कहीं मिल जाओ!

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